ग्राम सेतु ब्यूरो.
राजस्थान के हरियाणा सीमा पर बसा है एक गांव जिसे हेतरामपुरा यानी ढाबा कहते हैं। खेती-किसानी के क्षेत्र के लिए यह एक तीर्थस्थल और प्रयोगशाला है। तभी तो इस चमत्कारिक प्रयोग को देखने देश भर से लोग यहां पर पहुंचते हैं।
दरअसल, यहां पर कृष्णकुमार जाखड़ नामक प्रगतिशील किसान का फॉर्म हाउस है। जहां पर खेती के लिए नई तकनीकें ईजाद की जाती हैं। जिद और जुनून के दम पर जाखड़ आज नेचुरल फार्मिंग के क्षेत्र में देश और दुनिया में जाने जाते हैं। सचमुच, खेती को लेकर उनका तरीका कई अर्थों में जुदा है। खेतों का मिजाज भी उनकी तरह कुदरती हो चुका है। कम पानी में बेहतर उत्पादन का फलसफा समझ में आ चुका है।
सिंचाई पानी की बात करें तो आमतौर पर गेहूं को छह से सात, सरसों को तीन, चने को एक और नरमा-कपास को आठ पानी की जरूरत पड़ती है। लेकिन जाखड़ के खेतों में खड़ी गेहूं की फसल तीन, सरसों एक और नरमा-कपास की फसल पांच पानी में ही तृप्त हो उठती है। चने को तो सिंचाई के लिए एक पानी की भी जरूरत नहीं पड़ती।
अब जरा पेस्टीसाइड व कीटनाशकों के अंधाधुंध उपयोग से अधिकाधिक उत्पादन लेने वालों से कृष्ण कुमार जाखड़ के खेतों में हो रहे उत्पादन की तुलना करें तो आपका चौंकना लाजिमी है। अधिकाधिक पानी और पेस्टीसाइड का उपयोग कर किसान जहां खेतों से नौ से 11 क्विंटल गेहूं, चार से पांच क्विंटल सरसों, पांच से छह क्विंटल चना, चार से छह क्विंटल प्रति बीघे के हिसाब से नरमा-कपास का उत्पादन लेते हैं वहीं जाखड़ गेहूं आठ से दस क्विंटल, सरसों तीन से चार क्विंटल, चना दो से चार और नरमा-कपास का उत्पादन पांच से छह क्विंटल प्रति बीघा के हिसाब से लेते हैं। जहां तक लागत का सवाल है, वे अन्य किसानों की तुलना तीस फीसदी राशि भी खर्च नहीं करते।
जाखड़ के पास खूब जमीन है। इसमें वे खरीफ की नरमा-कपास, लोबिया, मूंग, ग्वार, ज्वार व बाजरी, रबी की गेहूं, सरसों व चना की फसलें उगाते हैं। इसके अलावा खेतों में घीया, गोभी, पालक, बैंगन, धनिया, मेथी, टिंडा व भिंडी जैसी सब्जियां दिखाई देती हैं तो फलों में अंगूर, माल्टा, मौसमी, किन्नू, अनार, चीकू, सीताफल व अमरुद आदि। प्राकृतिक खेती को आयाम देने में करीब ढाई दशकों से जुटे जाखड़ अब देश भर में घूम-घूमकर किसानों को इसे फायदे बताते हैं। विभिन्न विश्वविद्यालयों व सरकारी महकमों में इन्हें बतौर विशेषज्ञ आमंत्रित किया जाता है। इनके सुझावों को अमल में लाने की कोशिश होती है।
कृष्णकुमार जाखड़ ‘ग्राम सेतु’ से कहते हैं, ‘पहले लोगों को यह बात कम समझ में आती थी। आज कीटनाशक और रासायनिक उपयोग से जब अनाज जहर बन गया तो लोग जागे। बेहतर होगा लोग प्राकृतिक खेती से उपजाए फसलों की उचित मूल्य चुकाएं तो बाकी किसान भी इस तरफ आकर्षित होंगे। जितनी राशि आप साल में दवाइयों व बीमारियों पर खर्च करते हैं, उससे आधी राशि अगर अपने खान-पान पर खर्च करें तो आधी समस्याएं स्वतः कम हो जाएंगी।’