प्यास… के साथ बढ़ी मटकों की तलाश…, कैसे ?

आर्किटेक्ट ओम बिश्नोई.
ज्यों-ज्यों बढी प्यास, त्यों त्यों ही बढी तलाश मटकों की। यूं भी। बिना तलाश कब मंजिल मिलती ? थार में पलते थार के लोक गीत सुने हैं बचपन में बहुत। युवा होते होते समझ आया कि इन थार के लोक गीतों में कुओं, बावडियों का इतना जिक्र क्यों है। पानी जो जीवन का नियन्ता है और सभ्यताओं का जनक। थार में बेहद कमी ने ही तालाबों, गहरे कुओं, बावडियों, पानी के लोक गीतों को इजाद किया होगा ताकि आदमजात ठहर सके घर बना सके।

इसी पानी की तलाश में महिलाओ नें कोसों किलोमीटर यात्राएं की हैं। थार की बालू रेत में पानी के लोक गीत गाते। थार रेत की दुरुहता को वही समझ सकता जिसने उसे जीया है। सन 1971 में बनी फिल्म ‘दो बूंद पानी’ का गीत ‘पीतल की मोरी गागरी…’ या और बहुत तरह के लोक गीतों को सुनते हैं तो हम उस काल को कुछ ही सही महसूस तो कर ही सकते हैं।
किलोमीटरों से पानी लाने की दुरुहता को तोडने में हजारों-लाखों हाथों ने अपना पसीना बहाया है। मैंनें भी बचपन मे सूरतगढ़ की सिंचाई कालोनी में इंजीनियरिंग पढे लोगों के जीवटता को देखा है। कैसे वे अपनें घरों से दूर रहकर थार की रेत के साथ एकमेक होते रहे और अंतत पहाडों के पानी से रेत को गुलजार कर हरीतिमा में बदला। उसी थार के ऊंचे टीलों पर रोशनी के चिराग जगमगाने वाले इंजीनियर, थार के लहरदार टीलों में सडक ले जाने वाले इंजीनियर भी कहां कम रहे उस समय में। आज के थार की रेत इन इंजीनियरों को उनकी मैच्योर उम्र के मोड पर सलाम करती है। निश्चित ही, थार भी ठहरा है पानीं से हरीतिमा पाकर। मैंनें तो थार में घूमते उन बहुत सी उम्रदराज महिलाओं के चेहरे भी बखूबी पढे हैं जो आज संतोष से भरे हैं, वो अपने घरों में युवा पीढी को थार के पानी के गीत आज भी गुनगुना कर सुनाती ही होंगी।
लेखक ग्रामीण मसलों पर कलम चलाते हैं, देसी अंदाज के जीवट इंसान हैं

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