हनुमानगढ़ जिले में हर साल मिल रहे हैं चार हजार नए रोगी और डेढ़ सौ से ज्यादा लोगों की हो जाती है मौत। टीबी के इलाज की दवाइयों की कमी बढ़ा सकती है समस्या। समूचे मामले की गहराई से पड़ताल कर रहे हैं जाने-माने स्वतंत्र पत्रकार अमरपाल सिंह वर्मा
वर्ष 2025 तक देश को टीबी मुक्त करने का लक्ष्य है और इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए लेकर व्यापक स्तर अभियान चल रहा है मगर हनुमानगढ़ जिला वर्ष 2025 तक किस प्रकार टीबी रोग से मुक्त होगा, यह सवाल जन मानस के मस्तिष्क में कौंध रहा है। किसी भी टीबी रोगी को स्वस्थ करने के लिए दवाइयों और पर्याप्त पोषण की जरूरत होती है, इनमें दवाइयों की आवश्यकता सर्वाेपरि हैं मगर करीब छह महीने से जिले में टीबी की दवाइयों की कमी के कारण टीबी रोगियों के सामने प्रतिकूल हालात पैदा हो रहे हैं। टीबी के उपचार के लिए कारगर दवाओं की स्टॉक में कमी से ‘टीबी-मुक्त भारत’ कार्यक्रम को झटका लग सकता है।

राजस्थान में जो जिले सर्वाधिक टीबी रोगियों वाले माने जाते हैं, उनमें हनुमानगढ़ का नाम है। हनुमानगढ़ जिले में हर साल करीब चार हजार मरीज पाए जाते हैं। जिले में वर्ष 2019 में 4362 मरीज पंजीकृत किए गए। 2020 में 3992, 2021 में 3789, 2022 में 4418 तथा 2023 में 4197 मरीजों का पंजीकरण उनका इलाज शुरू किया गया। 2024 में मई के अंत तक 2124 मरीज पंजीकृत किए जा चुके हैं। इनमें से काफी मरीज प्राइवेट अस्पतालों में चिन्हित किए गए हैं लेकिन ज्यादातर मरीजों का उपचार सरकारी स्तर पर ही चल रहा है। यानी ज्यादातर मरीज सरकारी स्तर पर मिलने वाली दवाइयों पर ही निर्भर हैं। वर्ष 2024 में सर्वाधिक 1055 मरीज हनुमानगढ़ ब्लॉक में और सबसे कम 64 मरीज टिब्बी ब्लॉक में मिले हैं।
जिले में टीबी के कारण हर साल डेढ़ सौ से ज्यादा मरीज जान से हाथ धो बैठते हैं। सरकारी आंकड़ों के अनुसार जिले में वर्ष 2019 में 154, वर्ष 2020 में 170, वर्ष 2021 में 152, वर्ष 2022 में 191 और वर्ष 2023 में 165 टीबी मरीजों की मौत हुई है। वर्ष 2024 में मई के अंत तक 41 मरीजों की मौत हो चुकी है।

चिकित्सा विभाग कर रहा व्यापक काम…
हनुमानगढ़ जिले में पिछले चार-पांच सालों में टीबी उन्मूलन के लिए व्यापक स्तर पर काम हो रहा है। गांवों को टीबी मुक्त करने और ग्राम पंचायत स्तर तक रोगियों को चिन्हित कर उपचार के लिए ‘टीबी मुक्त ग्राम पंचायत अभियान‘ के अच्छे परिणाम सामने आए हैं। इस अभियान का ही परिणाम रहा है कि जिले को 2022 में प्रधानमंत्री टीबी मुक्त भारत अभियान में राज्य में तीसरा स्थान हासिल करने पर सम्मानित किया गया है। वहीं, 2023 में जिले के संगरिया ब्लॉक की 7 ग्राम पंचायतें बोलांवाली, मालारामपुरा, भगतपुरा, जंडवाला सिखान, चक हीरा सिंह वाला, लीलांवाली व दीनगढ़ टीबी मुक्त घोषित हुई हैं। एक जुलाई से जिले की 230 ग्राम पंचायतों में रोगियों को चिन्हित कर उनके उपचार के लिए अभियान शुरू कर दिया गया है।

चिकित्सा विभाग के प्रयासों में कहीं कोई कमी नजर नहीं आती है मगर बड़ा सवाल यह है कि जब तक टीबी की बीमारी के लिए जरूरी दवाइयां पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध नहीं हो पाएंगी तो चिकित्सा विभाग इस अभियान को चला कर भी क्या कर पाएगा? यह सराहनीय है कि जिले में टीबी रोगियों को सरकार निक्षय पोषण योजना के तहत प्रत्येक रोगी के खाते में पांच सौ रुपये भेज रही है। जिले में 557 निक्षय मित्रों के माध्यम से टीबी रोगियों को पोषण सामग्री भी उपलब्ध कराई जा रही है। जिले में 27 टीबी चौम्पियन भी जागरूकता फैलाने का काम कर रहे हैं। ये चौम्पियन वे लोग हैं, जो खुद टीबी का शिकार हुए और स्वस्थ होकर लोगों को टीबी से बचाव और उपचार के लिए प्रेरित कर रहे हैं। जिले मेें टीबी पर नियंत्रण पाने के लिए बहुत कुछ हो रहा है पर बड़ा सवाल यह है कि पर्याप्त दवाइयों के बिना कैसे काम चल पाएगा?

दवा छोडऩा सबसे बड़ी बाधा…
टीबी किसी को भी हो सकती है लेकिन अच्छी बात है कि संक्रमित मरीज जब दवा लेना प्रारंभ कर देते हैं तो वह दूसरों को संक्रमित नहीं कर पाते. लेकिन इलाज के बीच में दवाई छोड़ देना टीबी उन्मूलन में सबसे बड़ी बाधा है। प्रत्येक टीबी मरीज के लिए सबसे जरूरी यह होता है कि वह दवा निर्धारित किए गए समय तक निरंतर दवा लेता रहे, तभी उसे टीबी से मुक्ति मिल सकती है। अनेक मरीज हमेशा ऐसे होते हैं जो आदतन नियमित दवा नहीं लेते मगर दवा के संकट काल में ऐसे कितने मरीज हो गए होंगे, जो चाहकर भी दवा नहीं ले पाए या न हीं ले पा रहे, इसका पता लगाने का तात्कालिक तौर पर कोई तरीका नहीं है। पिछले छह महीनों में कितने मरीजों का नियमित दवा सेवन प्रभावित हुआ होगा और कितने एमडीआर टीबी की ओर बढ़े होंगे, यह कह पाना मुश्किल है लेकिन ऐसा नहीं हुआ होगा, यह कौन कह सकता है? दवा बीच में छूटने से मरीजों में एमडीआर टीबी होने का अंदेशा है।

चाहिए सात महीने का स्टॉक लेकिन…
जिला क्षय निवारण अधिकारी डॉ. रविशंकर शर्मा बताते हैं कि प्रोटोकॉल के हिसाब से राज्य मुख्यालय पर दस महीने, जिला स्तर पर सात महीने, ब्लॉक स्तर पर चार महीने और प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र स्तर पर दो महीने की दवाइयों का स्टॉक रहना चाहिए लेकिन वर्तमान में हनुमानगढ़़ जिला मुख्यालय पर तीन दिन का भी स्टॉक उपलब्ध नहीं हो पा रहा है। यानी जैसे-जैसे दवाइयां पहुंच रही हैं, वैसे-वैसे मरीजों को वितरित कर उनकी जरूरत को पूरा करने का प्रयास किया जा रहा है। उधर, टीबी रोगियों का कहना है कि पहले उन्हें पन्द्रह दिनों तक की दवा एक साथ दे दी जाती थी लेकिन अब बड़ी मुश्किल से एक या दो दिन की दवा ही मिल पा रही है। डॉ. शर्मा कहते हैं कि दवाइयों की आपूर्ति बहुत कम हो रही है मगर हम फिर भी सभी मरीजों को दवा उपलब्ध कराने के प्रयास कर रहे हैंं। कोई मरीज दवा से वंचित न रहे, इसलिए थोड़ी-थोड़ी ही सही, पर सबको दवा उपलब्ध करा रहे हैं। हमारा लक्ष्य वर्ष 2025 के अंत तक जिले मेें मरीजों की संख्या प्रति लाख जनसंख्या पर 44 मरीज पर लाना है। इसके लिए हम जुटे हुए हैं।

जनवरी में शुरू हो गया था संकट…
जिले में दवाइयों की कमी करीब छह महीने से चल रही है। जनवरी में ही दवा का संकट शुरू हो गया था, जो मार्च-अप्रेल में काफी गहरा गया। इस दौरान चिकित्सा विभाग ने दानदाताओं के सहयोग से भी दवाइयां जुटाईं लेकिन जरूरत इतनी बड़ी है कि सरकारी स्तर पर पहले की तरह दवाओं की उपलब्धता सुनिश्चित होने पर ही पार पड़ेगी। दवा की कमी से जिला स्तर से राज्य स्तर एवं राज्य स्तर से केन्द्र स्तर पर लिखा जा रहा है मगर मामला प्रोटोकॉल के मुताबिक स्टॉक की उपलब्धता से बहुत दूर है। राज्य के कार्यवाहक स्टेट नोडल अधिकारी (टीबी) डॉ. इन्द्रजीत सिंह दावा करते हैं कि हम दवाओं की उपलब्धता बढ़ाने के पूरे प्रयास कर रहे हैं। इसमें काफी हद तक सुधार हुआ है।

गरीब आदमी रोज कैसे आए दवा लेने…
हनुमानगढ़ में ह्यूमन राइट्स डिफेंडडर्स संस्था के संयुक्त संचिव शेरे खां कहते हैं कि छह महीने दवाओं का संकट शुरू हुआ और अभी भी टीबी के मरीज परेशान हैं। जिला मुख्यालय से लेकर कस्बों तक के मरीज परेशान हैं। मरीजों को एक-एक, दो-दो दिन की दवा दी जा रही है। नोहर, भादरा से कोई गरीब आदमी कैसे रोजाना दवा लेने यहां आ सकता है। हमने इस बारे में जिला कलक्टर को ज्ञापन दिया है। यह बहुत बड़ी समस्या है, इसका समाधान करना चाहिए।
एमडीआर टीबी बढऩे का खतरा…
जिला क्षय निवारण अधिकारी डॉ. रविशंकर शर्मा बताते हैं कि जिले में एमडीआर टीबी पर काफी मुश्किल से काबू में लाया गया है। जिले में वर्ष 2012 से 2014 तक हर साल डेढ़ सौ एमडीआर रोगी पाए जाते थे, जिनकी तादाद घट कर अब 80 से 90 रोगी प्रति वर्ष रह गई है। चिकित्सा एवं स्वास्थ्य विभाग में 27 साल तक सेवाएं दे चुके भारतीय प्रशासनिक सेवा के पूर्व अधिकारी डॉ. एसपी सिंह कहते हैं कि यह बहुत ही भयावह स्थिति है। जिन लोगों का उपचार चल रहा है, दवाओं की कमी उनके उपचार में सबसे अधिक जोखिम है। जिन लोगों को निरंतर दवाइयां नहीं मिल पा रही हैं, उनमें प्रतिरोधक क्षमता विकसित हो जाएगी। इसका दुष्परिणाम एमडीआर टीबी के रूप में निकलेगा। हमारे यहां पहले से ही एमडीआर टीबी के मरीज बहुत होते हैं, अब इसमें और इजाफा होगा। मेडिसिन स्टॉक आउट एमडीआर टीबी में वृद्धि के लिए अनुकूल परिस्थिति पैदा करता है। ऐसे मरीजों के परिजनों के संक्रमित होने का खतरा है। जिले में टीबी के रोगी बढ़ जाएंगे।
वर्ष 2001 में विश्व स्वास्थ्य संगठन के रिवाइज्ड नैशनल ट्यूबर क्लोसिस कंट्रोल प्रोग्राम (आरएनटीसीपी) में कंसलटेंट के रूप में चयनित हो चुके डॉ. एसपी सिंह कहते हैं कि दवाइयों के संकट को तत्काल दूर किए जाने की जरूरत है क्योंकि दवाइयों की कमी से समुदाय में बीमारी का खतरा बढ़ जाएगा जिससे समस्या और बढ़ सकती है।
(लेखक ने यह लेख रीच मीडिया फेलोशिप के तहत लिखा है।)

