अधूरा है समता और न्याय का सपना!

वेदव्यास
समय और सत्य के प्रभाव को जानने में मुझे कई बातें सदैव याद रहती हैं। मुझे लगता है कि मनुष्य के जीवन में अंधेरे से प्रकाश की ओर चलने के अलावा कोई भी विकल्प शेष नहीं है। बीसवीं शताब्दी भारत में इसीलिए नवजागरण का दिशा परिवर्तन लेकर आईं। हमारे देश में गुलामी और दासता से संघर्ष का दूसरा नाम ही स्वतंत्रता और समानता का उद्घोष कहलाता है। बचपन से लेकर आज तक मेरी समझ की खिड़कियां इसी कारण खुली हैं कि मैंने सूरज को चलते हुए देखा है। आज से सौ साल पहले के इतिहास में ही स्वामी विवेकानंद ने कहा था उठो! जागो और लक्ष्य की ओर बढ़ो। इसी तरह डॉ. भीमराव अंबेडकर कहा करते थे कि शिक्षित बनो, संगठित बनो और संघर्ष करो। तभी सुभाष चंद्र बोस का आहवान था कि तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूंगा, तो बाल गंगाधर तिलक का नारा था कि स्वराज हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है और हमें इसे लेकर रहेंगे। इन सबके साथ जब महात्मा गांधी बताते थे कि मेरा जीवन ही मेरा दर्शन है, तब हमारा युवा मन इन आदर्श उद्बोधनों को लेकर रोमांचित हो उठता था और त्याग तथा बलिदान की दिशा में स्वतः ही बढ़ जाता था।

लेकिन, 1947 में जिस आदर्श और नैतिक शक्ति को लेकर यह भारतीय समाज लोकतंत्र का नया जन्म लेकर प्रकट हुआ, वह पिछले 76 साल बाद अब जिस मुकाम पर खड़ा है, इससे हमें लगता है कि दुनिया को बदलते-बदलते हम खुद इतने बदल गए हैं कि व्यवहार और विचार की पूरी हवा आंधी बनकर पूरब से पश्चिम की ओर चलने लगी है और इसके ठीक विपरीत विवेकानंद, अंबेडकर, तिलक और गांधी का सोच भी परिवर्तन और विकास के नाम पर असहिष्णुता, असमानता, व्यक्तिवाद और केवल राज्य सत्ता के उपभोग में बदल गया है। प्रश्न बनता है कि क्या गुलामी अच्छी थी, जब हम एकजुट होकर भारत उदय के नारे लगाते थे और क्या वह आजादी इतनी बेगानी है कि जो हम आपस में ही धर्म, जाति, क्षेत्रीयता और भाषाई विविधताओं में तीन-तेरह हो गए?
आप सबको कुछ याद होगा कि 20वीं शताब्दी में ही कार्लमार्क्स और लेनिन ने दुनिया में सभी समस्याओं की जड़ एकमात्र पूंजी, धन और पैसे को ही बताया था और समता पर आधारित समाजवाद की वकालत की थी। हमारे भारतीय दर्शन में भी भौतिकवाद को मनुष्य का सबसे बड़ा शत्रु कहा गया है और माना गया है कि यह माया ही सबसे बड़ी ठगिनी है। किंतु, समाज में आज जो कुछ घटित हो रहा है, उससे यह साफ नजर आ रहा है कि हम ज्ञान और विज्ञान के बल पर एक ऐसे दलदल में फंस गए हैं कि चारों तरफ मानव अधिकारों का ही हनन हो गया है तथा समता और न्याय का पूरा सपना एक विकृति में बदल गया है तथा सुधार के सभी प्रयास भी हिंसा की भेंट चढ़ रहे हैं। पूरा समाज मन, वचन और कर्म से हिंसक होता जा रहा है तथा चारों तरफ आपसी विश्वास की प्राथमिकता से हत्या हो रही है।


विवेकानंद ने हिंदू धर्म को व्याख्या में कभी यह नहीं सोचा था कि भारत में केवल हिंदुवाद को कभी 21वीं शताब्दी की राजनीति का एकमात्र हथियार बनाया जाएगा और संविधान प्रणेता भीमराव अंबेडकर के दलित जन ही सबसे अधिक वंचित और प्रताड़ित बनेंगे। अब आजादी के लिए नहीं, अपितु निजी स्वार्थों के लिए हर आदमी खून बहा रहा है और कोई इस बात को कहीं नहीं समझ रहा है कि स्वतंत्रता पर हम सबका समान अधिकार है। महात्मा गांधी को मैं आजादी के आंदोलन का सबसे दूरदृष्टा राजनीतिक संत मानता हूं, लेकिन आज महात्मा गांधी को ही सत्ता व्यवस्था से सबसे अधिक निष्काषित किया गया है। कांग्रेस और भाजपा, दोनों ही, इसके दोषी हैं।
पिछला आजादी के बाद का अनुभव भी बताता है कि हम विकास और विज्ञान की देन को गलत दिशा में ले जा रहे हैं। हमारे मन में परिवार से भी पहले खुद की चिंता अधिक है तथा समाज और देश जैसी कोई अवधारणा अब इस बात पर जोर दे रहा है कि कर लो दुनिया मुट्ठी में। यानी के पैसा और धन पूरे देश और मनुष्य से बड़ा हो गया है और यही कारण है कि सुख-वैभव की जमीन महंगी है और मनुष्य सस्ता है। नया संकेत यह है कि ग्रामीण और माध्यम वर्ग की युवा पीढ़ी अब व्यवस्था परिवर्तन के लिए लामबंद हो रही है तथा सोशल मीडिया भी नई शक्ति बनकर उभर रहा है।
हमें लगता है कि आजादी के बाद जहां लोकतंत्र, समाजवाद और पंथ निरपेक्षता में आम आदमी का भरोसा बढ़ा है, वहां दलीय राजनीति को लेकर जनता में सामूहिक नफरत और अविश्वास अधिक गहरा हुआ है। देश की सैकड़ों राजनीतिक पार्टियों से धोखा खाने के बाद अब युवा पीढ़ी एक बदलाव की राजनीति की तरफ बढ़ रही है। ऐसे में अब आम आदमी खुद अपनी नई राजनीति के प्रयोग कर रहा है।

(लेखक वरिष्ठ साहित्यकार व पत्रकार हैं)

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