
राजकुमार सोनी.
छठी पातशाही श्री गुरु हरगोविंद सिंह जी के पांच पुत्र हुए थे। श्री गुरुदित्ता, श्री अणीराय, श्री अटल राय, श्री सूरजमल और श्री गुरु तेग बहादुर। आठवीं पातशाही श्री गुरु हरिकृष्ण जी के सचखंड प्रस्थान के बाद यह समस्या खड़ी हुई के गुरु कौन हो? सिख पंथ की परंपरा के मुताबिक, भावी गुरु का चुनाव वर्तमान गुरु ही करता था। श्री गुरु हरि कृष्ण जी ने 2 वर्ष तक ही गुरुआई की और 7 वर्ष 18 महीने और 18 दिन तक आप इस संसार में रहे। आपने सचखंड प्रस्थान के समय यह कहा था कि अगले गुरु ‘बाबा बकाले’ होंगे।

बकाले में उस समय गुरु वेश में सिवाय गुरू तेग बहादुर के दूसरा कोई रहता भी न था। किंतु करतारपुर से उठकर धीरमल भी बकाले जा बैठा और घोषित कर दिया के गुरु मैं हूं। श्री गुरु तेग बहादुर जी एकांत-वास को पसंद करते थे। आप कोठरी में बैठे जप करते हुए परमात्मा की भक्ति में तालीन रहते। आपकी दान-पुण्य में भी ऐसी रुचि की दीन दुखियों को कीमती चीज देने से भी कोई संकोच नहीं करते थे। बकाले में कई गुरुओं के पैदा हो जाने से सिख असमंजस में पड़ गए। आखिर तब सिख व्यापारी मखनशाह ने बकाले में गुरु को खोज लिया। वह सोने की 500 मोहरे लेकर अपने घर से चला था कि गुरु को भेंट करूंगा।
जब मक्खनशाह बकाले आया तो उसे 22 गुरु दिखाई दिए। वह बड़ा चकराया कि किसके आगे मत्था नवाजे, किसको इतनी बड़ी भेंटे दे। 500 स्वर्ण मुहरें उसे अवश्य भेंट करनी थी। क्योंकि कठिन संकट के समय जब उसका जहाज समुंद्री चक्रवात में फंस गया था। तब उसने मन्नत मांगी थी कि उसका जहाज सही सलामत निकल जावेगा तो वह मुनाफे का चौथा हिस्सा गुरु जी को भेंट कर देगा। गुरु कृपा से उसका जहाज चक्रवात सही सलामत निकल गया और उसे 2,000 स्वर्ण मोहरों का मुनाफा हुआ। उसमें से चौथाई 500 स्वर्ण मुहरें उसने गुरु जी को भेंट करने के लिए रख ली।

आखिर मक्खन शाह ने बुद्धि का इस्तेमाल किया कि सिख गुरु अंतर मन की बात जानने वाले सर्वदर्शी होते हैं। इसलिए उसने 22 गुरुओं यानि प्रत्येक को दो मोहरे देना शुरू किया। उसे विश्वास था कि इनमें से जो असली गुरु होगा वह पूछ बैठेगा कि तुम वहां से 500 मोहरे देने के लिए लाया है तो यहां दो मोहरें क्यों देता है। किंतु इन 22 कथित गुरुओं में से किसी ने उसको यह बात नहीं कही। तब मक्खन शाह को पूर्णतयरू विश्वास हो गया कि इनमें से कोई सिखों का असली गुरु नहीं है।

तब उसने बकाले के लोगों से पूछा कि यहां कोई सोढ वंश का कोई असली सिख गुरु नहीं है। तब एक बुढ़िया ने बताया कि छठी पातशाही श्री गुरु हर गोविंद सिंह जी का पुत्र तेग बहादुर यहीं रहता है। परंतु वह किसी छल प्रपंच में न पड़कर, एकांत में हरि भजन करता है। मक्खन शाह तुरंत तेग बहादुर के घर पहुंचे तो देखा कि समाधि लगाए गुरुजी हरि नाम का जाप कर रहे हैं। समाधि खुलने पर मक्खन शाह ने गुरु जी को दो स्वर्ण मोहरें भेंट स्वरुप रखी तो गुरु जी ने कहा, वैसे हमें इन स्वर्ण मोहरों से कोई लेना देना नहीं है। पर तुम्हारा संकल्प तो 500 मोहरें भेंट करने का था। फिर बाकी क्या वापस घर ले जाना चाहते हो। यह बात सुनते ही मक्खन शाह गुरुजी के पैरों में गिर पड़ा और कोठे पर चढ़कर ऊंची ऊंची आवाज में पुकारने लगा ‘गुरु लाधो रे’ अर्थात मैंने गुरु को ढूंढ लिया है। यह समाचार फैलते ही भारी संख्या में सिख श्रद्धालु दर्शनों के लिए उमड़ पड़े।

फिर दिल्ली से माता किशनकौर भी आ गई और उन्होंने गुरुआई के पांच पैसे और नारियल श्री तेग बहादुर को भेंट कर उन्हें सिखों का नौवां गुरु (नौवीं पातशाही) घोषित कर दिया। आज नौवीं पातशाही श्री गुरु तेग बहादुर जी के प्रकाश-उत्सव की सभी श्रद्धालुओं को लख-लख बधाइयां। श्री गुरु तेग बहादुर हिंद की चादर को कोटि-कोटि नमन।
-लेखक भाजपा ओबीसी मोर्चा के श्रीगंगानगर जिलाध्यक्ष रहे हैं