गोपाल झा.
पंचायतीराज व्यवस्था को पढ़ना और सुनना जितना सुखद है, उसके मर्म को महसूस करना उतना ही मुश्किल। हनुमानगढ़ जिला परिषद साधारण सभा की बैठक में सत्तापक्ष के विधायकों, पंचायत समितियों के प्रधान और कलक्टर-एसपी सहित अन्य महकमों के आला अधिकारियों का नहीं पहुंचना किस तरफ इशारा कर रहा है ? खासकर तब, जब चुनावी साल हो। राज्य विधानसभा चुनाव जीतने के लिए सभी दल दिल से जुटे हुए हों।
हनुमानगढ़ में ब्यूरोक्रेसी सरकार की फजीहत में कोई कसर नहीं छोड़ रही। अपवाद को छोड़ दें तो शायद ही कभी ऐसा मौका आया हो जब कुछ बरसों में प्रशासनिक अधिकारियों ने किसी नवाचारों की तरफ ध्यान देने की जहमत उठाई हो। दरअसल, यही किसी दक्ष अधिकारी को परखने का बेहतरीन तरीका है। कहना न होगा, हनुमानगढ़ में प्रशासनिक अधिकारियों के उदासीन रवैये से सरकार को बेहद नुकसान हो सकता है।
जिला परिषद को पंचायतीराज में उच्च सदन का दर्जा हासिल है। यह जिले की शीर्ष संस्था है। ग्रामीण समस्याओं के निराकरण के लिए सबसे मजबूत जगह। अफसोस, जिला कलक्टर व एसपी सहित अन्य विभागों के अधिकारी पंचायतीराज व्यवस्था को समझने में नाकाम हैं या फिर वे जानबूझकर इसको महत्व नहीं देते। क्या, सरकार ऐसे अफसरों पर नकेल कसने की जहमत उठाएगी ?
अब जरा सत्तापक्ष से जुड़े जनप्रतिनिधियों की गंभीरता देखिए। हनुमानगढ़ जिले के पांच में से कांग्रेस के दो विधायक हैं और एक विधायक माकपा के जो सत्तापक्ष के ही माने जाते हैं। बाकी दो विधायक विपक्ष यानी बीजेपी के। भाजपा से जुड़े विधायक धर्मेंद्र मोची और गुरदीप शाहपीनी जिला परिषद की बैठक में मौजूद दिखे लेकिन सत्ता के करीबी तीनों विधायक नदारद। नोहर पंचायत समिति प्रधान सोहन ढिल के अलावा कोई प्रधान भी नहीं दिखा। आखिर, इतनी बड़ी तादाद में जनप्रतिनिधियों की गैरमौजूदगी का क्या अर्थ निकाला जाए ? क्या, ये सिर्फ सियासी कद बढ़ाने के लिए पद पाने की होड़ में रहते हैं ?
सवाल यह भी है, मुख्यमंत्री अशोक गहलोत इन्हीं विधायकों व जनप्रतिनिधियों के भरोसे सरकार रिपीट करने की कवायद में जुटे हैं ? ऐसे जनप्रतिनिधि जिन्हें चुनावी साल में भी जनता की फिक्र नहीं ? माना कि जनप्रतिनिधि बहुत व्यस्त रहते हैं। पहले से उनके कार्यक्रम तय होते हैं लेकिन जिला परिषद साधारण सभा की बैठक से अधिक महत्वपूर्ण राजनीतिक कार्य तो नहीं हो सकते। उनके वोट बैंक का बड़ा तबका इसी से तो जुड़ा हुआ है। फिर जिला परिषद की बैठक महीने या दो महीने में तो होती नहीं। छह से आठ महीने में एक बार ही होती है। ऐसे में इस महत्वपूर्ण मीटिंग की अनदेखी को कैसे उचित ठहरा सकते हैं ?
देखा जाए तो अफसरशाही बढ़ने और जनप्रतिनिधियों की उदासीनता के लिए आम जन भी जिम्मेदार है। खासकर हनुमानगढ़ जिले में तो अफसरों को ‘देवता’ बना दिया जाता है। ऐसे अफसर उस ‘आदर’ के भाव का गलत अर्थ निकाल लेते हैं। भूल जाते हैं कि वे लोकसेवक हैं और जनता की ‘चाकरी’ के लिए बैठे हैं। वे खुद को ‘बड़ा’ समझने की भूल कर जाते हैं। सच तो यह भी है कि यहां के जनप्रतिनिधि भी ऐसे अफसरों को आइना दिखाने का साहस नहीं जुटा पाते। फिर जनता के पास इन अफसरों को ‘झेलने’ के अलावा कोई चारा नहीं।
देखना दिलचस्प होगा कि जिला परिषद बैठक का बहिष्कार प्रकरण जिले के प्रशासनिक अमलों और जनप्रतिनिधियों के लिए कोई सबक होगा भी या नहीं। अगर इससे भी कोई ‘ज्ञान’ नहीं मिला तो फिर जनता को चुप्पी तोड़कर ऐसे अधिकारियों व जनप्रतिनिधियों को ‘दर्पण’ दिखाने की पहल तो करनी ही चाहिए। यही समय की मांग है और लोकतंत्र का दस्तूर भी। कोई शक ?
–लेखक भटनेर पोस्ट मीडिया ग्रुप के एडिटर इन चीफ हैं
बिल्कुल सही फरमाया आपने क्योंकि इस चुनावी वर्ष में भी जनता की सुध लेने वाला कोई नहीं है तो चुनाव जीतने के बाद तो 5 वर्ष कोई सुनने वाला नहीं