मैं शर्मिंदा हूं…. और आप ?

गोपाल झा.
राजस्थान में हनुमानगढ़ जिला मुख्यालय से महज 15 किमी दूर है गांव डबलीराठान। बहुत पुराना गांव है और आबादी भी अच्छी खासी। घटना है 27 जून की। रात के करीब 11 बज रहे थे। दुकान से फ्री होकर टेकचंद छाबड़ा अपने घर की तरफ जा रहे थे। मन में कई तरह के सपने पल रहे होंगे। बेटे और बेटी की पढ़ाई, कॅरिअर और फिर उनकी शादी। मध्यम वर्गीय परिवार इससे ज्यादा सोचता भी क्या है? संभवतः टेकचंद छाबड़ा भी इसी सोच को साकार करने का सपना देख रहे हों। अचानक चार लोग सामने आए और उन पर जानवर की तरह टूट पड़े। न तो संभलने का वक्त मिला और न ही कुछ सोच पाने का। वे गिर पड़े और चारों हमलावर शैतान की तरह उन पर ताबड़तोड़ हमला करते रहे। जब उन्हें लगा कि टेकचंद छाबड़ा में जान बाकी नहीं रही तो कहीं जाकर उन्होंने छाबड़ा को छोड़ा और नकदी और अन्य सामान लेकर वहां से फरार हो गए। इतने में किसी की नजर पड़ी। खून से लथपथ टेकचंद छाबड़ा को संभाला। परिजन आए और तत्काल अस्पताल पहुंचाया गया। करीब 10 दिन बाद भी टेकचंद छाबड़ा को होश नहीं आया। आखिरकार, उन्होंने 7 जुलाई की मध्यरात्रि दुनिया को अलविदा कह दिया। खबर फैलते ही डबलीराठान ही नहीं बल्कि आसपास के क्षेत्र में भी लोग स्तब्ध रह गए। छाबड़ा की दो संतान हैं। एक बेटा और एक बेटी। दोनों पढ़ाई कर रहे हैं। वैदिक रीति से शव का अंतिम संस्कार होगा और सामाजिक रीति से अंतिम अरदास। शोक जताने लोग पहुंच रहे हैं, यह क्रम कुछ दिन जारी रहेगा। फिर धीरे-धीरे वारदात ‘बासी’ हो जाएगी और लोग सब कुछ कुछ भूल जाएंगे। अमूमन, हर हादसे के बाद ऐसा ही तो होता आया है न!


लेकिन, सवाल यहीं से शुरू होता है। आखिर, टेकचंद छाबड़ा जैसे निर्दोष लोग कब तक बेमौत मरते रहेंगे ? आखिर, उनका कसूर क्या था ? और….अगर वे बेकसूर थे तो फिर इस झकझोर देने वाली घटना के लिए जिम्मेदार कौन है ? यकीनन, हम सब हैं। पुलिस, प्रशासन, सरकार, समाज और जनता। अगर हम सब जिम्मेवार नहीं होते तो इस तरह के हादसों को बेखौफ अंजाम नहीं दिया जाता।


‘अपराधियों में भय और आम जन में विश्वास’। काहे का भय और काहे का विश्वास? कड़वा सच यह है कि अपराधी बेखौफ हैं। पुलिस से शरीफों को डर लगता है। बेशक, पुलिस अपराधियों को संरक्षण देती है। राजनेता पुलिस को गलत काम के लिए प्रेरित करते हैं और मजबूर भी। मीडिया का एक तबका ‘धंधेबाज’ हो चुका है। उसे ‘टार्गेट अचीव’ करने की फिक्र रहती है। उसे सच-झूठ से मतलब नहीं। कमाल की बात है, जनता अपनी बेबस आंखों से सब कुछ देख रही है। वह कमजोर पड़ चुकी है। अरस्तु ने कहा था, ‘मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है’। लेकिन समाज और संगठन का फार्मूला बेअसर हो चुका है। व्यवस्था के खिलाफ सड़क पर उतरने वालों को चिढ़ाया जाने लगा है, ‘आंदोलनजीवी’ कहकर। लिहाजा, पुलिस आक्रामक हो गई है। पुलिस थानों में ‘सौदेबाजी’ का खेल चल रहा है। हिस्सा सियासतदानों तक बंटता है। मलाईदार पदों पर नियुक्ति का आधार ही यही है। तो क्या, इस बदबूदार माहौल में ‘कानून’ और ‘व्यवस्था’ का दम नहीं घुटेगा? जनता यूं ही बेमौत नहीं मरती रहेगी ?


दरअसल, इसी को ‘जंगलराज’ कहते हैं। जंगल में ताकत का जोर चलता है यानी जिसकी लाठी उसकी भैंस। हमारा कानून इतना लचीला है कि आप जब चाहें उसे अपनी तरफ मोड़ लीजिए। बशर्ते कि आपके पास ताकत होनी चाहिए। पैसे की। रसूख की और सत्ता की भी। इन ताकतों का अपना तर्जुबा है।


जरा सोचिए। टेकचंद छाबड़ा आपके परिवार के होते तो आप क्या करते ? यूं ही चुपचाप रहते? नहीं। हर्गिज नहीं। आप गमगीन होते। आपका मन द्रवित होता। व्यवस्था के प्रति आपके मन में आक्रोश पैदा होता। आप एक-दूसरे का सहयोग लेते। संगठित होकर जिम्मेदार लोगों के सामने जाकर अपनी व्यथा वक्त करते। अपराधियों को सख्त सजा दिलाने के लिए पुलिस को मजबूर करते। यही लोकतंत्र का तकाजा है। जब भी कोई तंत्र कमजोर हो तो उसे मजबूत करना जनता की जिम्मेदारी है। अब तो सारा तंत्र कमजोर पड़ चुका है। यूं कहिए, फेल हो चुका है। सरेराह इंसान की जान ली जाने लगी है। खून से लथपथ टेकचंद छाबड़ा का बदन देख अगर मन द्रवित नहीं होता तो यकीन मानिए, हम पत्थरदिल हो गए हैं। कुछ भी हो। टेकचंद छाबड़ा की मौत से हम सदमे में हैं, भले हम उन्हें नहीं जानते हों लेकिन हमारा एक रिश्ता तो था ही। इंसानियत का।


यह भी सच है कि टेकचंद छाबड़ा अब लौटकर नहीं आएंगे। चार हत्यारों ने मिलकर उनकी जान ले ली है। लेकिन, अपराधियों को सख्त सजा दिलाना जरूरी है ताकि बाकी को सबक मिले। वरना, अगला टेकचंद छाबड़ा मैं बन सकता हूं और आप भी। सोचिए, एकजुट होकर व्यवस्था को मजबूत करने में अपनी भूमिका सुनिश्चित कीजिए। नेताओं के पक्ष और विपक्ष में बेवजह लफ्फेबाजी छोड़कर सार्थक मसलों पर बहस कीजिए। सामाजिक सुरक्षा बड़ा मसला है। खुद को बचाइए। समाज को बचाइए। इसके लिए एकजुट होना जरूरी है। बहरहाल, पूरे घटनाक्रम पर मैं व्यथित हूं….., शर्मिंदा हूं….. और आप ?
-लेखक भटनेर पोस्ट मीडिया ग्रुप के चीफ एडिटर हैं

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *