





डॉ. अर्चना गोदारा.
आजकल कोई भी सेलिब्रिटी या मॉडल कहीं आती या जाती है तो उसके बैग पर एक क्यूट मॉन्स्टर बोले जाने वाला छोटा-सा खिलौना टंगा हुआ दिखाई देता है। जिसकी कीमत बाजार में 1200 से लेकर ढाई हजार के लगभग है। जिसे देखो, वह इसे अपने बैग पर टांगे नजर आ रहा है। वर्तमान में एक नया ट्रेंड पूरी दुनिया में बाजार और सोशल मीडिया पर छाया हुआ है, लाबूबु टॉय (लाबूबु डॉल)। यह छोटा सा खिलौना अपने मासूम और विचित्र रूप के कारण बच्चों ही नहीं, बल्कि युवाओं (विशेषकर लडकियों) और यूथ के बीच भी बेहद लोकप्रिय हो गया है। इस खिलौने की शक्ल-सूरत, आँखें और नन्हा आकार जो कि खूबसूरत तो नहीं है फिर भी लोगों को न केवल आकर्षित करता है, बल्कि उन्हें पलभर के लिए उनके बचपन की दुनिया में ले जाता है।
जहां एक ओर यह खिलौना खुशी और मनोरंजन का कारण बन रहा है, वहीं दूसरी ओर यह सामाजिक और मानसिक तनाव का भी कारण बनता जा रहा है। आज की भौतिकतावादी संस्कृति में, कोई भी ट्रेंड केवल एक मासूम आदत नहीं रह जाती बल्कि वह प्रतिस्पर्धा और दबाव का रूप ले लेती है। मार्केट में बिकने वाले इस खिलौने की खासियत यह है कि यह बंद डब्बे में आता है और खरीदने वाले को यह पता नहीं होता है कि उसे यह किस रंग में मिलेगा। क्योंकि यह लगभग छह कलर में बनाया जाता है और एक कलर इसमें मिस्ट्री माना जाता है। लाबूबु का विशेष खिलौना बहुत कम होता है और औसतन 100 में से सिर्फ 1 या उससे भी कम (0.7) लोगों को मिलता है। इसलिए इसकी बाजार कीमत और मांग बहुत ज़्यादा होती है। लोग इसी स्पेशल कलर के लालच में एक से अधिक संख्या में इसे खरीद रहे हैं। लोग अपने बच्चों के लिए इस टॉय को खरीदने की होड़ में हैं, और सोशल मीडिया पर इसे दिखाने की ललक एक अदृश्य सामाजिक दबाव को जन्म दे रही है।

आंकड़ों के अनुसार, केवल छह महीनों में लाबूबु टॉय की बिक्री में 150 फीसद से अधिक वृद्धि देखी गई है। छोटे-बड़े दुकानदार इसे खरीदने और बेचने में अधिक रुचि दिखा रहे हैं। ऑनलाइन प्लेटफॉर्म्स पर यह टॉय हजारों में बिक रहा है, जबकि इसकी वास्तविक निर्माण लागत बहुत कम है। इसका मतलब है कि इस खिलौने ने बाजार में भावनात्मक पूंजी के माध्यम से वाणिज्यिक लाभ को जन्म दिया है। यही कारण है कि अब बाजार में नकली लाबूबु बड़ी संख्या में कम कीमत पर बेचा जा रहा है। जिसे मज़ाक में लाफूफु बोला जा रहा है।
जहां धनवान वर्ग इस टॉय को खुशी और स्टाइल स्टेटमेंट के रूप में अपना रहा है, वहीं समाज का एक अन्य तबका इसे खरीदने में असमर्थ है। ऐसे में यह सामाजिक असमानता की खाई को और गहरा करता है। बच्चे अपने दोस्तों को यह खिलौना लाते देखकर हीनभावना का शिकार हो रहे हैं, जिससे उनमें मानसिक तनाव और कुंठा जन्म ले रही है। इस तरह के ट्रेंडिंग खिलौनों से मिलने वाली खुशी अक्सर क्षणिक होती है। यह एक डोपामिन हिट जैसा कार्य करती है, कुछ समय के लिए मन प्रसन्न हो जाता है, लेकिन जल्द ही उसकी जगह कोई नया ट्रेंड ले लेता है। यह चक्र एक तनाव का रूप ले लेता है फिर बच्चों और बड़ों को स्थायी खुशी से दूर ले जाता है।

मासूम और भद्दा दिखने वाले इस टॉय से बच्चों को कुछ समय के लिए खेलने के आनंद से ज्यादा दिखाने का आनंद मिलत रहा है, लेकिन मार्केटिंग कंपनियां इसे भावनाओं से जोड़कर लोगों की जेब से पैसा निकाल रही हैं। जब कोई बच्चा इसे नहीं ले पाता , तो उसमें असंतोष और ईर्ष्या का जन्म होता है। आजकल सोशल मीडिया पर “मेरे पास भी लाबूबु है” जैसी पोस्ट्स दूसरों पर मानसिक दबाव बना रही हैं।
लाबूबु डॉल अपने आप में कोई बुरा उत्पाद नहीं है। यह केवल एक मासूम खिलौना है। लेकिन जब समाज, बाजार और सोशल मीडिया इस मासूमियत को ब्रांड बना दिया हैं, तब यह खिलौना खुशी का कारण कम और तनाव का स्रोत अधिक बन गया है। हमें चाहिए कि हम इस प्रकार के ट्रेंड्स को संतुलन और समझदारी से अपनाएं। बच्चों को खुशी देने के लिए ट्रेंडिंग टॉय नहीं, समय, स्नेह और संवाद देना चाहिए। तभी समाज सच्चे अर्थों में मानसिक और आर्थिक रूप से संतुलित बन पाएगा।
खुशी बाजार से खरीदी नहीं जा सकती बल्कि माहौल को खुशनुमा बना कर ली जा सकती है। क्योंकि कुछ खरीद कर जो खुशी आती है, वह खुशी नहीं बल्कि एक संतोष होता है जो कुछ समय मात्रा के लिए होता है। बाजार विभिन्न तौर तरीकों को अपनाकर लोगों की भावनाओं के साथ खेलने का प्रयास करते हैं और उनका एक ही उद्देश्य होता है वह है केवल मुनाफा कमाना। ऐसे में खुशी केवल बाजार के सामान में ना ढूंढ कर अपने परिवार के बीच में या अपनी किसी विशेषता मे ढूंढने का प्रयास करना चाहिए। क्यों कि वह कभी तनाव का कारण नहीं बनती है।
-लेखिका राजकीय एनएमपीजी कॉलेज हनुमानगढ़ में सहायक आचार्य हैं




