




ओम पारीक.
आज का युग तकनीक और संसाधनों की तेज़ रफ्तार से चल रहा है। शिक्षा, स्वास्थ्य और आधुनिक उपकरणों ने आम जनजीवन को जितना आसान बनाया है, उतना ही भावनात्मक रूप से हम एक-दूसरे से दूर भी हुए हैं। पीढ़ियों के अंतराल में सोच, व्यवहार और जीवनशैली में भारी बदलाव आया है। उम्रदराज लोग आज के हालात पर चिंतन करते हुए कहते हैं, हम उस पीढ़ी के लोग हैं जो बुज़ुर्गों से डरते थे, और आज की पीढ़ी संतान से भी डरती है।
आज की पीढ़ी को ‘भाग्यशाली’ कहा जा सकता है, क्योंकि उनके पास अपने निर्णय लेने की आज़ादी है। संकट आते हैं तो वे उन्हें हालात का हिस्सा मानते हैं, न कि जीवन का अंत। एक तरफ पक्के घर बन चुके हैं, संसाधन भरपूर हैं, रोजगार की कमी नहीं है, बस करने वाला चाहिए।

यूँ ही चलते-चलते मैं रामदेव-खे़त्रपाल जी के मंदिर मार्ग पर जुड़ी एक पुरानी हथाई में बैठ गया। आस-पास बैठे सभी चेहरे परिचित थे। कुछ बालों की सफेदी में समय का प्रमाण दे रहे थे, तो कुछ अनुभव की झुर्रियों में पुरानी पीढ़ियों की चमक समेटे हुए। बातों-बातों में वर्तमान और अतीत के कई दृश्य उभरकर सामने आए।
च्यानन राम खाती (उम्र 83 वर्ष) ने कहा-‘आज की तुलना में जानकारी तो बढ़ी है, लेकिन प्रेम घट गया है।’ जयपाल (उम्र 48) बोले-‘साधन-सुविधाएं ज़रूर बढ़ी हैं, लेकिन आत्मीयता कम हो गई है।’ बुद्धाराम मेघवाल (उम्र 66) ने याद करते हुए कहा-‘हमारे समय पांच रुपये दिहाड़ी मिलती थी, उसी में घर का दाना-पानी चल जाता था। अब मजदूरी 700 रुपये है, पर संतोष नहीं है।’ मोहम्मद यासीन (उम्र 82), जो पिछले पचास सालों से मिस्त्री का काम कर रहे हैं, बोले-‘पहले कच्चे मकान ज्यादा थे। सीमेंट दो रूपयों में मिलती थी, अब दाम भी बढ़े और मज़दूरी भी। मगर अपनापन कम हो गया।’ श्योपत नायक (उम्र 50) ने कहा-‘स्कूल नहीं गया, पढ़ाई का शौक था पर हालात नहीं थे। पढ़े-लिखे नहीं हैं, मगर ज्ञान में कमी नहीं मानी जाती।’ हनुमान छींपा, जिन्होंने 1958-59 में दसवीं कक्षा उत्तीर्ण की थी, बोले-‘हमारे समय में अन्न की कमी थी। आठ आने में कुर्ता सी दिया जाता। अब हर चीज़ उपलब्ध है।’

नत्थू जी भार्गव (उम्र 65) खेती करते हैं और साक्षर भी हैं। उन्होंने विनम्रता से कहा-जिंदगी में कोई बड़ा काम नहीं किया, लेकिन आत्मसम्मान और संतोष हमेशा रखा।’ बृजलाल मेघवाल, रावतसर के पुराने निवासी हैं। उन्होंने बताया कि पुराने बाजारों में नमक-मिर्च, तिल, गुबार, बाजरा एक ही दुकान से मिल जाते थे। सुखदेवरा में खदरिया के यहां से सामान लाते थे, उनका पुत्र मोहनलाल तोलता था।
बीच में बैठे राजीराम भार्गव, जो अब सुन नहीं पाते, मगर हथाई की बैठकों में ज़रूर आते हैं। उन्होंने जीवन को एक फलसफा मानते हुए कहा-‘जीवन ऋतुओं का खेल है। इस मरुप्रदेश में मौसम का मिज़ाज अक्सर महाभारत रचता है। काल, सूखा, त्रिकाल सब देखे हैं। टिड्डियाँ, अकाल, भयंकर बीमारियाँ, इन सबके बीच भी आदमी जी लेता था। अब तो मशीनें हैं, ट्रैक्टर हैं, फसलें भी हैं, पर वक़्त नहीं है संभालने का।’
60 के दशक से पहले की खेती पूरी तरह पशुओं और मेहनत पर आधारित थी। ऊंट और बैल से फसल ढोई जाती, अनाज को पशु गाहते थे। जब दोनों फसलें (हाड़ी व सावणी) हो जातीं, तो उन्हें समेटना मुश्किल होता। बाजार में खरीदार कम और दाम औने-पौने। ग्वार, चना, बाजरा खेत में छह-छह महीने पड़ा रहता। तब खलिहानों में अनाज तीन साल तक सुरक्षित रहता था, आज उसी को ट्रक में भर मंडी भेज दिया जाता है।

घरों में संसाधन सीमित थे, मगर हर घर एक उत्पादन केंद्र था। दूध, घी, दही घर में बनता, छाछ भी पर्याप्त होती। भोजन सीमित मगर पोषण से भरपूर। खिचड़ा, दलिया, रोटी, वही सुबह, वही शाम। त्योहारों में लापसी, खीर, हलवा। सरल जीवन, कम जरूरतें और भरपूर संतोष।
बीमारी होने पर झाड़-फूंक, देसी इलाज और मनोबल ही सहारा था। चेचक (ओरी माता) का डर इतना था कि जिनके निकल नहीं पाती, उन्हें ‘कच्चा भांडा’ कहा जाता और जल्दी विवाह नहीं होता। बिच्छू, सांप के काटने पर थान की शरण ली जाती। सन् 1960 के बाद रावतसर में सरकारी अस्पताल खुला। मलेरिया वैक्सीनेटर गांव-गांव जाकर डीडीटी छिड़कते और गोली बांटते। पर तब भी चिकित्सा सीमित और विश्वास गहरा था।
आज तकनीक, साधन और शिक्षा की रोशनी है। पर क्या उस दौर का अपनापन, आत्मीयता और जीवन की सहजता अब भी है? बुज़ुर्गों की बातें बताती हैं, ‘म्हारे होती डोई जद पूछता कोनी कोई, म्हारे कोनी डोई जद पूछे हर कोई।’ (जब हम सक्षम थे, कोई पूछता नहीं था, अब कमजोर हैं, तो सब पूछते हैं।)

यह हथाई सिर्फ गुजरे ज़माने का बखान नहीं, एक आइना है जो हमें दिखाता है कि सुविधाओं के पीछे भागते हुए हमने वो सरलता, सामूहिकता और आत्मीयता कहीं पीछे छोड़ दी है। यह संस्मरण सिर्फ सुनना नहीं है, बल्कि महसूस करना है, एक पूरी पीढ़ी की वो विरासत जो आज की पीढ़ी के लिए सबक बन सकती है। क्योंकि गुज़रा हुआ वक्त कभी गुज़रता नहीं… वह अनुभव बनकर हथाई की चौपाल में अब भी जीवित है।
-लेखक रावतसर के वरिष्ठ पत्रकार व संस्कृतिप्रेमी हैं




