


एमएल शर्मा.
राजस्थान के चूरू जनपद में स्थित श्री सालासर बालाजी धाम भक्तों के श्रद्धा सैलाब का अनूठा केंद्र है। भारतवर्ष का एकमात्र मंदिर जिसमें बालाजी महाराज का स्वरूप ‘दाढ़ी मूंछों’ वाला है। आस्था, भक्ति, विश्वास, समर्पण जैसे भाव लिए श्रद्धालुओं का तांता वर्ष भर मंदिर में लगा रहता है। यह बजरंग बली की महिमा ही है कि यह क्षेत्र धार्मिक स्थलों में अपना विशिष्ट स्थान रखता है। सरल भक्तिभाव के देवता बालाजी महाराज अपने भक्तों की रक्षा के लिए अडिग देव है। भाव से तो कुछ भी उन्हें अर्पित किया जा सकता है। लेकिन उनके कुछ प्रमुख भोग भी हैं जिन्हें अर्पित करने से श्री बालाजी महाराज अपने भक्तों की इच्छा पूर्ण करते हैं। बूंदी के लड्डू बालाजी महाराज को बालपन से ही बेहद प्रिय है। कहा जाता है कि बालाजी को सबसे पहले बाजरे के चूरमें का भोग लगाया गया था। पेड़ों का भोग भी श्री बालाजी महाराज को लगाने की परंपरा काफी वर्षों से चली आ रही है। बेसन की बर्फी बालाजी को चढ़ाई जाती है। मनोकामना पूर्ति के लिए भक्त यहां नारियल भी अर्पित करते हैं।

रोचक है मंदिर का इतिहास
प्रचलित कथा के अनुसार भक्त प्रवर श्री मोहनदास जी महाराज की भक्ति से प्रसन्न होकर हनुमान जी ने मूर्ति रूप में सन 1755 विक्रम संवत् 1811 श्रावण शुक्ल नवमी दिन नागौर जिले के आसोटा ग्राम में एक चमत्कार हुआ। गांव का एक किसान अपने खेत को जोत रहा था। अचानक उसके हल से कोई पथरीली चीज़ टकरायी और एक गूंजती हुई आवाज पैदा हुई। किसान ने उस जगह खुदाई की तो उसे मिट्टी में सनी मूर्ति मिली। उसकी पत्नी उसके लिए भोजन लेकर आई थी तो उसने मूर्ति को अपनी साड़ी से साफ किया। उन्होंने समर्पण के साथ अपने शीश नवाए और भगवान बालाजी की पूजा कर भोजन में लाए गए बाजरे के चूरमे का भोग लगाया। आसोटा के ठाकुर को बालाजी ने सपने में आकर कहा कि इस मूर्ति को बैलगाड़ी में सालासर भेज दिया जाए। ठीक उसी रात्रि संत मोहनदास जी महाराज को बालाजी ने स्वप्न में दर्शन देकर मूर्ति के बारे में बताया। महात्मा मोहनदास जी ने कहा कि बैल जहां पर रूकेंगे, वहीं पर मूर्ति की स्थापना होगी।

कुछ समय पश्चात बैल रेत के टीले पर जाकर रूक गए। तो उसी पावन-पवित्र स्थान पर शनिवार के दिन श्री बालाजी महाराज की मूर्ति स्थापना की गई। इसी जगह को आज सालासर धाम के रूप में जाना जाता है। मंदिर का निर्माण विक्रम संवत् 1815 में नूर मोहम्मद व दाऊ नामक राजगीरों द्वारा किया गया।
अपने आराध्य ईष्ट को साक्षात् मूर्ति स्वरूप में पाकर उनकी सेवा-पूजा हेतु श्री मोहनदास जी ने अपने शिष्य व भांजे उदयराम को दीक्षा दी। मंदिर प्रांगण में स्थापना के समय ज्योति प्रज्जवलित की गई जो आज तक अखण्ड रूप से अनवरत दीप्यमान है। भक्त शिरोमणी मोहनदास जी महाराज अपने तपोबल से विक्रम संवत् 1850 वैशाख शुक्ला त्रयोदशी को प्रातःकाल जीवित समाधि लेकर ब्रह्म में लीन हो गए।

मोहनदास जी के ‘धूणे’ से श्रद्धालु पवित्र भस्म ले जाते है। पास ही मोहनदास जी व उनकी बहन की समाधि बनी हुई है जहां मोहनदास जी और कानी दादी के पैरों के निशान आज भी मौजूद हैं। यहां निरंतर रामायण का पाठ चलता है। सालासर में नवरात्रि के समय साल में दो बार मुख्य मेले भरते है वहीं श्राद्धपक्ष में त्रयोदशी के दिन संत मोहनदास के श्राद्ध दिवस पर दूर दराज से श्रद्धालु पहुंचते है। रुकने के लिए कई विशाल धर्मशालाएं, होटल बने हुए है। विघ्न, बाधा हरने वाले, भक्तों के संकटमोचक बालाजी महाराज की कृपा सब पर बनी रहे। जय श्री बालाजी।
-लेखक पेशे से अधिवक्ता हैं



