शिक्षा, समाज और ‘नो फ्री लंच’ का भ्रम

ओम बिश्नोई.
मित्र से विमर्श चल रहा था, विषय था शिक्षा। उसने तर्क रखा, ‘नो फ्री लंच मित्र! मुफ्त में मिली चीज़ों की क़दर कौन करता है?’ मैं मुस्कुरा दिया। बात सुनने में आकर्षक लगी, पर भीतर से खोखली।
मैंने उसे याद दिलाया, जब देश आज़ाद हुआ था, पहला बजट मात्र 200 करोड़ से भी कम था। संसाधन कम थे, पर संकल्प बड़ा था, कैसे बहुसंख्यक जनता को शिक्षित किया जाए, उनमें वैज्ञानिक चेतना जगाई जाए, ताकि वे उत्पादन में सहयोगी बनें, देश से जुड़ाव महसूस करें और यह भाव विकसित हो कि देश ने मेरे लिए कुछ किया है। यही भाव व्यक्ति को लौटाने की प्रेरणा भी देता है, जैसे संयुक्त परिवार में पला बच्चा बड़ा होकर सफल होने पर अपने परिवार का सहारा बनता है।


आज सवाल यह है, जब बच्चा लाखों-करोड़ों रुपये खर्च कर, या कर्ज़ लेकर पढ़ाई पूरी करेगा, तब समाज, सरकार और देश उससे किस हक़ से उम्मीद करेगा कि वह कुछ लौटाए? उसके पास भी तर्क होगा, ‘मैंने शिक्षा खरीदी है, तो अपने धन की वसूली करने के लिए स्वतंत्र हूं।’ यह बाज़ारवाद का ही दूसरा रूप है।
असल में ‘नो फ्री लंच’ का आईडिया समाज से अलगाव और बिखराव की ओर ले जाता है। शिक्षा यदि महज़ एक प्रोडक्ट बन जाएगी, तो वह राष्ट्रनिर्माण का निवेश नहीं रह जाएगी। समाज जो आज बच्चों में बोएगा, वही कल काटेगा।


इन्हीं विचारों के बीच एक अनुभव ताज़ा हो उठा। पीलीबंगा क्षेत्र के किसान मित्र चरणप्रीत बराड़ के साथ मुलाकात हुई दौलत जी भाम्भूं से भी। बातचीत शिक्षा और विकास से आगे बढ़कर गाँव की योजनाओं तक पहुँची।
गाँव नया-नवेला पंचायत क्षेत्र बना था। दौलत जी ने चरणप्रीत सिंह के माध्यम से कहा, ‘आप हमारे गाँव की प्लानिंग में सहयोग करें।’ बात आगे बढ़ी, गाँव का भ्रमण हुआ, खाली जगहें देखी गईं, और वहीं बैठकर गाँव के मिनी सचिवालय, पार्क, खेल मैदान की रूपरेखा बनी। मेरे दफ़्तर के बच्चों ने भी डिज़ाइन और विज़ुअल बनाने में योगदान दिया।


धीरे-धीरे सपनों ने आकार लिया। पंचायत भवन तैयार हुआ, खेल मैदान विकसित हुआ, भविष्य के लिए सरकारी दफ़्तरों के प्लॉट नियोजित किए गए। असल मेहनत दौलत जी, सरपंच रोशनी जी और उनकी युवा टीम की थी। हाल ही में सरकार की पुस्तिका ‘सफलता की कहानियाँ’ में इस गाँव का ज़िक्र आया। पढ़कर दिल भर आया।
गाँव के बच्चे जब खेलेंगे, तो वे नशे और बुराइयों से दूर रहेंगे। जब उन्हें बेहतर और सुलभ शिक्षा मिलेगी, तो वे महसूस करेंगे कि समाज और सरकार ने उनमें निवेश किया है। यही निवेश एक दिन उन्हें लौटाने के लिए प्रेरित करेगा। हाँ, अपवाद हमेशा होंगे, लेकिन बहुसंख्यक युवा लौटाएंगे ही।


‘नो फ्री लंच’ की विचारधारा सुनने में आधुनिक और आकर्षक लग सकती है, पर शिक्षा और समाज के संदर्भ में यह खतरनाक है। अगर शिक्षा को पूरी तरह बाजार के हवाले कर दिया गया, तो आने वाली पीढ़ी के मन से कर्तव्यबोध और समाज से जुड़ाव खत्म हो जाएगा।
समाज आज जो बोएगा, कल वही काटेगा। और जब गाँवों की मिट्टी से ऐसी सफलता की कहानियाँ निकलेंगी, तो हमें यक़ीन होगा कि सही निवेश कभी व्यर्थ नहीं जाता। दौलत जी का न्योता है गाँव आने का। तय रहा, किसी रोज़ गोपाल झा भाई को साथ लेकर ज़रूर चलेंगे।
-लेखक पेशे से सीनियर आर्किटेक्ट हैं

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