


ग्राम सेतु ब्यूरो.
बिहार के मधुबनी जिले के पंडौल थाना क्षेत्र की श्रीपुर हाटी उत्तरी पंचायत के शाहपुर गांव में 17 अगस्त की सुबह हुई दर्दनाक घटना ने पूरे इलाके को झकझोर दिया। बंदरों के हमले में गांव के बुजुर्ग रामनाथ चौधरी (67) की मौत ने न सिर्फ ग्रामीणों में दहशत फैलाई है, बल्कि प्रशासन और व्यवस्था पर भी गहरे सवाल खड़े कर दिए हैं। आखिर कब तक ग्रामीण बेकाबू जानवरों के आतंक से असहाय बने रहेंगे? और क्यों वन विभाग और जिला प्रशासन सिर्फ कागज़ी कार्रवाइयों तक सीमित है?
शाहपुर निवासी और लोहट चीनी मिल के सेवानिवृत्त कर्मचारी रामनाथ चौधरी रविवार सुबह रोज़ की तरह घर के पास मवेशियों के लिए चारा काट रहे थे। तभी 20-25 बंदरों का झुंड उन पर टूट पड़ा। इंसान और जानवर की यह अप्रत्याशित लड़ाई इतनी खौफ़नाक थी कि बंदरों ने उनके हाथ-पांव और शरीर के अन्य हिस्सों को बुरी तरह नोंच डाला। जब तक लोग शोर मचाकर बंदरों को भगाते, तब तक रामनाथ गंभीर रूप से घायल हो चुके थे। परिजन उन्हें आनन-फानन में सदर अस्पताल ले गए, लेकिन वहां चिकित्सकों ने उन्हें मृत घोषित कर दिया।

इस हादसे ने शाहपुर ही नहीं, सरहद, गंगापुर, ककना, तेतराहा, हाटी आदि पूरे क्षेत्र में भय का माहौल बना दिया है। ग्रामीणों का कहना है कि पिछले कई महीनों से बंदरों का आतंक बढ़ता जा रहा है। महिलाएं और बच्चे घर से निकलने में डरते हैं। खेतों में काम करने वाले किसान असुरक्षित महसूस कर रहे हैं। लेकिन प्रशासन और वन विभाग ने अब तक ठोस कदम नहीं उठाए। लोगों का गुस्सा साफ है, जब तक जान नहीं जाती, तब तक अफसरों की नींद क्यों नहीं खुलती?
हादसे की सूचना मिलते ही पंचायत के मुखिया रामकुमार यादव मौके पर पहुंचे और इसकी जानकारी अंचलाधिकारी पंडौल, अनुमंडल पदाधिकारी सदर मधुबनी, जिला पदाधिकारी व पंडौल थाने को दी। अंचलाधिकारी पुरुषोत्तम कुमार और थानाध्यक्ष मो. नदीम गांव पहुंचे, औपचारिक मुआयना किया और वरिष्ठ अधिकारियों को रिपोर्ट भेज दी। वन विभाग से बंदरों को पकड़ने की बात कही गई। लेकिन सवाल यह है कि क्या सिर्फ रिपोर्ट भेज देने और बंदर पकड़ने की खानापूर्ति से समस्या का समाधान हो जाएगा?

ग्रामीणों का कहना है कि यह कोई पहली घटना नहीं है। बंदरों के हमले से लोग आए दिन घायल होते हैं। कई बार बच्चों और महिलाओं को गंभीर चोटें आईं, लेकिन प्रशासन हर बार महज़ आश्वासन देकर चुप बैठ गया। वन विभाग की कार्रवाई दिखावे से आगे नहीं बढ़ पाती। सवाल उठता है कि आखिर ग्रामीणों की सुरक्षा की जिम्मेदारी किसकी है? क्या सरकार सिर्फ चुनावी भाषणों में ‘सुरक्षा और विकास’ तक सीमित है? क्या प्रशासन की भूमिका केवल हादसों के बाद निरीक्षण करने और रिपोर्ट बनाने तक सिमटकर रह गई है?

गांव के लोग अब खुद को ठगा हुआ महसूस कर रहे हैं। उनका कहना है कि अगर समय रहते बंदरों की समस्या पर ध्यान दिया जाता, तो रामनाथ चौधरी आज जीवित होते। ग्रामीणों की स्पष्ट मांग है, गांव और आसपास के क्षेत्रों में बेकाबू बंदरों को तत्काल पकड़ा जाए। मृतक परिवार को उचित मुआवजा और आश्रित को रोजगार दिया जाए। स्थायी समाधान के लिए वन विभाग को ठोस रणनीति बनानी चाहिए। गांवों में सुरक्षा उपाय और हेल्पलाइन की व्यवस्था हो।

डॉ. गोविंद झा कहते हैं कि रामनाथ चौधरी की मौत सिर्फ एक गांव या एक परिवार की त्रासदी नहीं है। यह उस व्यवस्था पर करारा तमाचा है, जो लोगों की सुरक्षा की जिम्मेदारी उठाने का दावा करती है, लेकिन असल में नाकाम साबित होती है। जब तक प्रशासन बंदरों के आतंक को गंभीरता से नहीं लेगा और ठोस कार्रवाई नहीं करेगा, तब तक शाहपुर जैसे गांवों में इंसान और जानवर के बीच यह असमान जंग जारी रहेगी। ग्रामीण कमलनाथ झा के मुताबिक, सरकार और अफसरों को समझना होगा कि हादसे के बाद संवेदना जताना पर्याप्त नहीं है, जरूरी है समय रहते कार्रवाई करना। वरना अगला शिकार कौन होगा, यह कहना मुश्किल है।
नोट: पहली तस्वीर प्रतीकात्मक और दूसरी वास्तविक
