




रूंख भायला.
राजी राखै रामजी ! हथाई में आज बात सांतरै रचाव री। जगचाव लिखारा होया है फ्रेंज काफ्का, बां रै मुजब रचाव इस्यो होवणो चाइजै जिको बांचणियै रै सिर में दोहत्थड़ पटीड़ दांई पड़ै अर बो केई ताळ उण पीड़ नै पंपोळबो करै। आपां बात करां, राजस्थानी में सबद साख परोटती इणी भांत री अेक कविता री, जिकी संवेदना रै स्तर नै आकासां लेय जावै। राजस्थानी रा प्रेमचंद गिणीजता अन्नाराम सुदामा री आ कविता है ‘पगलिया समै री रेत पर’ जिकी आपनै बांचणी चाइजै।

सुदामा री अेक पोथी है व्यथा कथा अर दूजी कवितावां। इण कविता संग्रै नै पीड रो दस्तावेज कैयो जा सकै, जिण में उठता वेदना रा भतूळिया कदेई कवि रै अंतस नै फंफेड़श्र चकरी चढा दियो होवैला। जणाई ओ रचाव होयो है। इणी संग्रै में ‘पगलिया समै री रेत पर’ नांव सूं अेक कविता है। आ कविता फ्रेंज काफ्का रै अन्तर्भेदू रचाव रो अेक सबळो उदाहरण है। मानवीय संवेदना रो आकासां पूगतो चरम इण कविता में लाधै जिकी आपरै कथ्य अर बुणगट रै पाण पाठकां रै हियै में ऊंडी उतर जावै।

अेक अणबस मा अर उण रै दो नान्है टाबरियां रै दुखां अर तकलीफां सूं भरीजी आ कविता इत्ती मार्मिक है कै बांचणियै रो अंतस ई गळगळो नीं होवै, आंख्यां सूं पाणी र्झ यां ई सरै। अठै हिंदी रा चावा-ठावा कवि सुमित्रानंदन पंत चेतै आवै, जिकां कैयो है, कविता फगत विचार अर तथ्य सूं नीं बणै, बा तो अंतस री अनुभूति सूं निपजै। पंतजी लिखै-
वियोगी होगा पहला कवि, आह से उपजा होगा गान
निकलकर आंखों से चुपचाप, बही होगी कविता अनजान

सुदामा री आ कविता इण बात री साख भरै। दुखां री पोट भरी इण कविता में अेक विधवा मा री अणबसी, अर उण पर पड़ता करमां रा अंतहीन घमीड़ा री व्यथा कथा है।

आथूणै राजस्थान रै अेक छोटै सै गांम रो दरसाव लियां, इण कविता रो कथ भोत साधारण ढंग सूं उठै अर छेवट जावता पीड़ रो समदर बण पाठकां रै रूं-रूं सामीं धरती नै बिडरूप करती विसमता माथै सवाल खड़्या करै। कविता में कमठाणै जावती अेक बेबस मा है सुक्खी, जिण रै बारह बरसां री छोरी सुगणी अर पांच बरसां लाडेसर सिवलो है। आ मा जियां-तियां आपरी जियाजूण रो गाडो घींसै। अेक रात छोरी आपरी मा सूं जिद पकड़लै, कै काल निर्जला ग्यारस है अर कमठाणै री छुट्टी, इण सारू मा काल उण नै खोखा चुगण जावण दै। बैन रै लारै-लारै छोटकियो सिवलो ई खोखा ल्यावण री जिद करै। मा बेटी री बंतळ, अर किरदार सारू सुदामाजी री ऊंडी दीठ सूं रचीजी बुणगट देखो-
मा/निर्जला है काल/कमठाणो बंद है नीं/
हां बेटी/
तो दिनुगै बैगी/ला सूं खोखा/जा सूं रोही।
काल तो थारै पड़ी ही ईंट/पग पर/हुगी आंगळयां भेळी/छूटगी तूरकी लोही री/
बरसै दिन में लाय/हुसी उबाणी/दूखै पग/खोड़ावै न्यारी……जा सी खोखा लावण नै !
जासूं म्हूं आप/ मा सागै सूतो/ बरस पांच रो सिवलो
नां बेटा/ जूतिया थारै ही कठै/ कंवळी पगथळयां/ नीचौ भोभर/ ऊपर खीरा/ करसूं म्हूं थारा हीड़ा/ का लासूं पइसा पावलै रा ? चइजसी पेट नै तो आटो/ देसी कुण बता बो ?..

मा घणी बरजै पण बाळहठ आगै पींघळ’र छेवट हंकारो भर देवै। दोनूं टाबर कोड रै घोड़ै पर असवार, खोखां रा सुपनां लेवता नींद री गोद्यां जा बड़ै। सुक्खी टाबरां रो सिर पळूंसती आपरी जियाजूण रा पानां फरोळबो करै। काल कमठाणै पर जद सेठ ढिगली पर बजरी उछाळतै सिवलै रै थाप री मेली तो मा रै बाकी नीं रैयी। पण सुदामाजी री कारीगरी देखो, सुक्खी सामीं सेठ किस्योक ऊथळो दियो-
सुक्खी/छोरै नै डरायो हो थोड़ो/कूटूं/म्हूं किस्यो अज्ञानी/किसो गूंगो ? टाबर री नंई सुणनी/सुण्यां बिगड़ै बो ! ओळभो आज बजरी रो/तो ढोळदै काल घड़ो बो घी रो/सोच तूं ही/होसी पछै मुस्किल कीं रै ?घाल्यां डर/ रैसी चेतो/सुधरसी बो/करसी कमाई/थारै/का म्हारै ?

इण सेठ सूं सुक्खी जद आपरी मजूरी मांगै तो देखो, बो कियां टरकावै-कै आज तो बिस्पत/है सोगन देवण री/अर काल निरजला/राखै किरपा/मांगणै री सुक्खी/मोटो आदमी/ चाइजै पइसा सगळां नै/पण भांगै गुड़ सै गोथळी में…..
मार्क्स रै मुजब ईं सेठ जिस्या सोसक मुखौटा आखी दुनिया में लाधै जिका सुक्खी सिरखै कित्ता ई मजूरां रो हक दाब्यां बैठ्या है।

सुक्खी री अळोच में कविता आगै बधै। आगलै दिन बखावटै ई दोनूं टाबर उबाणै पगां खोखा रै लालच में गांम सूं डेढ़ कोस दूर तांई आ पूगै। बळती लाय अर खीरा उछाळती रेत में टाबर खोखा घणाई भेळा करै, राजी होवै। पण छेवट घरै पूगण सूं पैली उणी रोही में तिस्साया हो जावै अर कदे खींप, कदे बूई री छियां लेवता, पाणी-पाणी करता प्राण छोड़ देवैै। कवि खोखा चुगता टाबरां री अणचायी मौत रै मिस बिधना री विसमता रो सांगोपांग दिरसाव मांडै। सिवलै अर सुगणी नै सोधती बांरी मा जद रोही में पूगै अर आपरै बचियां री ल्हासां देखै तो कीं बाकी नीं रैवै। कविता रा रंग देखो-
सिवला, उघाड़ आंख्यां/मा हूं थारी/पण सिव/पी विसमता रो विस/छोड दी धरती/ली समाधी लम्बी/खापण नीचौ/लास ऊपर/छोड सब/हुग्यो सिव विसधर….।

बाको फाड़ती मा कूकी किसी थोड़ी। आई ना सासू/ना धणी/कठै सिवलो/कठै सुगणी ? पण जूझणो धर्म है। उदास-उदास लागगी बा भळै काम में….। कविता आगै बधै तो सुक्खी नै गांव में सुणनो पड़ै कै दोनूं टाबर निर्जला ग्यारस नै पाणी-पाणी करता र्म या है, अवस ई भूत होसी, भटकसी रोही में। टैम बेटैम आवता-जावता ई डरसी। अेक मा रै कानां जद अे बातां पड़ै तो सोचो, उण रै जीवण में सार कठै ! पण कवि सुदामा सुक्खी नै आपरै टाबरां तांई पूगण रो अेक मारग देवै, जठै कविता भळै उठ खड़ी होवै।

ज्यूं हरिवंशराय बच्चन ‘नीड़ का निर्माण फिर-फिर/ नेह का आह्वान फिर-फिर’ री सीख दिरावै, उणी तर्ज पर सुक्खी गांव रै अगूणै पासै अेक बूढी खेजड़ी हेठै पाणी री पौ लगावै, तगारी सूं घसीज्यै आपरै सिर माथै रोज सात-आठ घड़ा ढो’र ल्यावै/रमता टाबर, अेवड़ रा गुवाळिया अर आवता जावता सगळा उण पौ रो पाणी इमरत मिस पीवै अर जीवै। इणी जियाजूण नै ढोवती, पाणी पावती सुक्खी रो सूवटो, अेक दिन उडारी ले लेवै। सुक्खी रा पगलिया समै री रेत पर मंडै, समाजू विसमता पर भोत मोटा सवाल खड़्या करै…। आं सवालां रै पाण ई आ कविता वैश्विक बणै।

बात नै सावळ जचा’र कैणी सगळां रै बस में कोनी। आं मायनां में सुदामा रो कवित्व अेक पूरो इंस्टीटयूशन लखावै। हर कवि चितराम ई तो मांडै, सबद चितराम जिकां रो आभो कदे-कदे इत्तो विस्तार लेय लेवै कै बा कविता वैष्विक हो जावै। ज्यूं धर्मवीर भारती ‘गुनाहों का देवता’ उपन्यास रै उत्तरार्ध में पाठकां नै चंदर अर सुधा रै मिस पग-पग छेड़ै रूणा’र छोड़ै, उण सूं ई बेसी, सुदामा तो ईं कविता री पैली लैण सूं ई बांचणियै रै अंतस तांई जा पूगै, उण री आंख्यां में बरसणो सरू कर देवै।
आज री हथाई रो सार ओ है, जिका पाठक बातां रा रसिया है, कीं तत सार जाणै बान्नै सुदामा रो साहित संसार बांचणो चाइजै। बाकी बातां आगली हथाई में। आपरो ध्यान राखो, रसो अर बस्सो….।
-लेखक हिंदी व राजस्थानी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर हैं

