मिट्टी दी खुशबू: कत कुड़े ना वत कुड़े

राजेश चड्ढ़ा.
तिरिंजन या त्रिंजण इक लोक रवायत है, जिसदी शुरुआत किसे खास घटना नाल नहीं होयी, बल्कि एह हौली हौली इक भाईचारक सामाजिक अते मनोरंजन कारज दे रूप विच विकसित होयी। त्रिंजण दियाँ पंजाब विच ढूँगियाँ जड़ाँ हन।
पँजाबी सभ्याचार विच त्रिंजण इक अजेही सामाजिक लहर है, जिस नाल लोक गीताँ दे राहीं समकाली औरताँ दियाँ इच्छावाँ अते दुखाँ नूँ प्रगट कीता जाँदा है।


त्रिंजण सिर्फ़ मनोरंजन नहीं उस तों वध है। इस नूँ रवायती पँजाबी समाज विच औरताँ लयी इक महत्वपूर्ण सामाजिक सँस्था केहा जा सकदा है। पीढ़ियाँ तों चले आ रहे गीताँ अते कहानियाँ राहीं जुड़ण, अनुभव साँझा करण, बुजुर्गां तों सिखण अते सभ्याचारक विरासत नूँ साँभ के रखण लयी त्रिंजण नूँ इक प्लेटफार्म मनेया जा सकदा है।


त्रिंजण दे दौरान गाए जान वाले लोकगीत अक्सर रोज़ाना दे जीवन, प्रेम, विछोड़े, सामाजिक मुद्देयाँ अते अपणे सभ्याचारक विरसे नूँ दर्शाैंदे हन। भाँवे आधुनिकीकरण दे नाल इस प्रथा विच कुज कमी आयी है, फेर वी एह पँजाबी कुड़ियाँ दे सामूहिक जीवन अते सभ्याचारक प्रगटावे दा इक महत्वपूर्ण प्रतीक बणेया होया है।


इस प्रथा दे प्रभाव बहुत ढूँगे हन अते पिंड नूँ इक मज़बूत प्रभुसत्ता आधार अते कलात्मक प्रगटावे लयी इक मंच अते भाईचारे विच जुड़ाव दी भावना प्रदान करदे हन। हुण औद्योगीकरण अते आधुनिकीकरण दे कारण अजहे सभ्याचारक जश्न आलोप हो गये हन।


दरअसल पँजाब विच चरखा अते हाथ नाल बुनाई दी इक लंबी अते अमीर परंपरा रही है। इस त्रिंजण विच कुड़ियाँ अपणे व्याह दे समाँ दहेज वजहों दिते जाण वाले सूती वस्त्राँ विचों चादराँ, खेस, कढाई अते बुनाई दा समान खुद तैयार करदियाँ हन।


त्रिंजण पँजाबी संस्कृति दी इक अजेही रस्म है जिस विच कुड़ियाँ कट्ठे बैठदियाँ हन अते कताई, बुनाई करदेयाँ लोक गीत गौंदियाँ रहंदियाँ हन। त्रिंजण, औरताँ दी शक्ति, रचनात्मकता अते भावनात्मक, सभ्याचारक, वातावरण अते सामाजिक रिश्तेयाँँ दा प्रतीक है।


पँजाबी लोक सँगीत विच त्रिंजण गीताँ दी वी इक खास जगहा है। त्रिंजणाँ दे गीत समकाली औरताँ दी इच्छा अते दुखाँ दा प्रगटावा हुँदे हन। इन्हाँ गीताँ विच चरखे दी घूक इस तरहाँ मिल जाँदी है जिंवे एह कोई सँगीत दा साज होवे। आमतौर ते सर्दियाँ दियाँ राताँ विच आस-पड़ोस दियाँ कुड़ियाँ दा, इक कंबल विच कट्ठे हो के चरखा कतदे होये चुहलबाजी करणा अते सारियाँ कुड़ियाँ दा सूत दे लच्छेयाँ नूँ इक जगहा कट्ठा करके छज विच रखणा, त्रिंजण कहलाँदा है। चरखा कतण वालियाँ सारियाँ कुड़ियाँ रात नूँ कुज खा-पी के, अपणा-अपणा चरखा अते लच्छे लैके, चरखा कतण वाली सखी दे घर जाँदियाँ हन। सब तों पहलाँ लच्छा कतेया जाँदा है।

लच्छा कतण तों बाद, उस नूँ उस उस लड़की दे कोल रख दिता जाँदा है जेड़ी सब तों तेज कतदी है। फेर कताई शुरू हुँदी है। हँसी-मज़ाक अते नाल-नाल ठिठोली वी चलदी रहँदी है। कुड़ियाँ घरों ल्याँदा खाण-पीण दा सामान, जिंवे छोले, मक्की दे दाणे, गुड़ अते पिन्नियाँ खाँदियाँ, कतदियाँ रहँदियाँ हन। त्रिंजण दा कतणा आमतौर ते अद्धी रात तक चलदा रहँदा है। रात नूँ सूत गरम रखण लयी मिट्टी दे भाँडे विच कोले दी अग्ग वी जगायी जाँदी है।


हुण कोयी वी खादी नहीं पौंदा। एत्थे तिकर कि चरखा वी हुण सिर्फ़ बहुत वड्डी उम्र दियाँ औरताँ ही कतदियाँ हन। हुण ताँ ज़्यादातर कुड़ियाँ चरखा चलोणा वी नहीं जाणदियाँ। इसलयी त्रिंजणाँ दा ताँ सवाल ही नहीं पैदा हुँदा।
सूफ़ी सँत बुल्लेशाह, ज़िंदगी दे वखरे-वखरे पहलुआँ नाल त्रिंजण वरगी परँपरा नूँ जोड़दे होये इसदे आध्यात्मिक पख नूँ अपणी इक बाणी विच बहोत सोहणे तरीके नाल समझाँदे होये कहँदे हन-
कत्त कुड़े ना वत्त कुड़े।
छल्ली लाह भड़ोले घत्त कुड़े।
जे पूनी पूनी कत्तेंगी,
तां नंगी मूल ना वत्तेंगी,
सै वर्हआं दे जे कत्तेंगी,
तां काग मारेगा झट कुड़े।
कत्त कुड़े ना वत्त कुड़े।

जे दाज वेहूनी जावेंगी,
तां किसे भली ना भावेंगी,
ओथे शहु नूं किवें रीझावेंगी,
कुझ लै फ़करां दी मत्त कुड़े।
कत्त कुड़े ना वत्त कुड़े।

बाबा बुल्लेशाह कहणा चौहँदे हन कि एह सँसार त्रिंजण दी तरहाँ है अते असीं सारे कतण वाले हाँ। सानूँ कर्म ज़्यादा अते कर्म दियाँ गल्लाँ धट करणियाँ चाहिदियाँ ने। असीं अपणे-अपणे कर्मां लयी आप जिम्मेदार हाँ। एह कर्म ही साढा़ दाज है जिस नूँ असीं अपणे प्रीतम, अपने परमात्मा दे कोल लै के जाणा है। साढा़ प्रीतम इसदे नाल ही राजी होवेगा। इसलयी सानूँ सब नूँ पूणी बराबर छोटे-छोटे चँगे कारज करदे रहणा अते अपणा-अपणा दाज तैयार करदे रहणा चाहीदै। अपणे प्रीतम दे घर जा के कुज कतण दा मौका नहीं मिलणा।


बुल्लेशाह कहँदे हन कि जिस तरहाँ जीवन विच असीं अपणे प्यारेयाँ नाल चँगे रिश्ते बणा के रहँदे हाँ, उन्हाँ नूँ खुश रखदे हाँ। उसे तरहाँ परमात्मा वी प्रीतम ही है, उसदी भावनावाँ नूँ समझदे होये सानूँ ओ ही कर्म करणे चाहीदे ने जिस नाल उसदे कोल जाके शर्मिंदा ना होणा पवे। इस फकीर दी एही हिदायत है।
-लेखक जाने-माने शायर और आकाशवाणी के पूर्व वरिष्ठ उद्घोषक हैं

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