गाय, गौशाला और हमारी जिम्मेदारी!

ओम पारीक.
दो वर्ष पूर्व, आज ही के दिन मेरी मुलाकात ग्राम धानसिया के पूर्व सरपंच धन्ने सिंह से हुई थी। यह मुलाकात किसी औपचारिक कार्यक्रम का हिस्सा नहीं थी, बल्कि सहज संवाद की तरह शुरू हुई और धीरे-धीरे एक गहन प्रश्न में बदल गई। धन्ने सिंह ने बड़े सीधे-सपाट अंदाज़ में मुझसे पूछा, ‘हमारे गांव की गौशाला आर्थिक रूप से तो मज़बूत है, पर सवाल यह है कि इसके लिए अच्छी देशी नस्ल की गाय कौन-सी ठीक रहेगी? कौन-सी नस्ल यहां की मिट्टी और माहौल में सार्थक साबित होगी?’
उनका प्रश्न सरल था, लेकिन उत्तर इतना आसान नहीं था। मैं थोड़ी देर सोचता रहा और फिर मैंने अपनी ओर से इतना ही कहा, ‘हरियाणा की नस्ल की गाय यहां के वातावरण में काबिलियत दिखा सकती है। राठी नस्ल भी एक विकल्प है, मगर राठी में दो दिक्कतें हैं, पहली, उनके स्तनों में खराबी की बीमारी और दूसरी, उनका घुमंतू स्वभाव।’
यानी साफ था कि मेरे पास ठोस उत्तर नहीं था। मैं कोई निर्णय देने की स्थिति में नहीं था। लेकिन उस दिन की बातचीत से मेरे मन में एक और गहरी बात अंकित हो गई। मुझे महसूस हुआ कि गौशाला केवल गायों की समस्या का इलाज भर नहीं है। असली समस्या यह है कि हमने गौ पालन को व्यवसाय नहीं बनाया, और यही हमारी सबसे बड़ी भूल रही।
आज देश में ऐसा कोई कोना नहीं जहाँ गौशाला न हो। लोग अपने-अपने स्तर पर प्रयास कर रहे हैं, धन लगा रहे हैं, सेवा कर रहे हैं। लेकिन नतीजा? आवारा घूमती गायों की समस्या जस की तस। असल सवाल यह है कि जब तक हम गाय के उपयोगी पक्ष नहीं खोजेंगे, तब तक यह समस्या बनी रहेगी।
गाय के लिए सबसे ज़रूरी है गौचर भूमि। लेकिन आज गांवों में उसकी नितांत कमी है। खेती के अलावा पशुओं और वन्य जीवों के लिए कोई ज़मीन बची ही नहीं। जो ज़मीन थी, वह भी धीरे-धीरे कब्ज़ों, योजनाओं और विकास के नाम पर गायब हो गई।
बरसाती पानी को रोकने वाले जोहड़, तालाब, गीनानी, कुएं, बावड़ी, कुंड, सब कुछ वक्त की मार झेलते-झेलते खो गए। खेती में भी अब पशुओं की कोई भूमिका नहीं रही। न बैल की ज़रूरत, न ऊंट की। आधुनिक कृषि यंत्रों ने सब कुछ बदल दिया।
एक समय था जब ग्रामीण अर्थव्यवस्था में भेड़-बकरी पालन का बड़ा महत्व था। आज वह भी लगभग लुप्त हो गया। किसान की क्षमता भी बदल गई। पहले पशु पालन उसके जीवन का हिस्सा था, अब वह केवल नफ़े-नुक़सान के गणित तक सीमित हो गया है। इस गणित ने गाय को सबसे पहले बाहर धकेला। क्योंकि गाय उतनी ‘लाभकारी’ नहीं रही जितनी भैंस या बकरी।
यानी, हमने खुद ही गाय की सांकल खोली और उसे सड़कों पर छोड़ दिया। बाद में वही समाज, वही लोग, धर्म की पताका लेकर गौशाला खोलते हैं और पुण्य अर्जित करने का दावा करते हैं।
ध्यान दीजिए, किसी ने कभी आवारा भैंस, बकरा, भेड़ या बकरी सड़कों पर नहीं छोड़ी। क्योंकि वे बिकाऊ हैं, लाभकारी हैं। लेकिन गाय? उसके गले में हमने धर्म का मर्म डाल दिया और उसे सड़कों पर भटकने के लिए छोड़ दिया। फिर उसी पाप को धोने के लिए हम गौशालाओं का सहारा लेते हैं।
आज पूरा देश, समाज, संगठन, यहाँ तक कि अध्यात्मिक मंच भी, सब गाय की सेवा की बात करते हैं। लेकिन यह सेवा केवल भावनात्मक अपील तक सिमटी हुई है। गाय दूध न दे तो कोई घर में रखने को तैयार नहीं। यही तो अजीब दास्तान है।
आज हालात यह हैं कि गांव हो या शहर, हर जगह आवारा पशुओं की भरमार है। खेतों की सीमाओं पर करंट वाले तार खींचे जा रहे हैं ताकि आवारा गायें फसलों को न बिगाड़ें। नालियों, कचरा-घरों और सड़कों पर मुंह मारती गायें आम दृश्य बन चुकी हैं। हर दूसरी सड़क दुर्घटना का कारण यही आवारा पशु हैं, चाहे वह गाय हो या सांड।
असल में यह केवल हमारी संस्कृति या धार्मिक मान्यताओं का प्रश्न नहीं है। यह गाय के अस्तित्व और संरक्षण का प्रश्न है। अगर यह सिलसिला ऐसे ही चलता रहा, तो वह दिन दूर नहीं जब हमारी आने वाली पीढ़ियाँ दूध के लिए तरसेंगी।
दूध सबको चाहिए, लेकिन गाय किसी को नहीं। यह असंभव है। हमें तय करना होगा कि हम गाय को सिर्फ़ धार्मिक प्रतीक मानना चाहते हैं या फिर उसे ग्रामीण अर्थव्यवस्था और आधुनिक कृषि प्रणाली में सार्थक स्थान देना चाहते हैं।
सवाल यही है, क्या हम ऐसा कोई स्थायी निदान खोज पाएंगे, जिससे गाय का सम्मान भी बना रहे और उसकी उपयोगिता भी? क्या हम भविष्य की पीढ़ियों को यह भरोसा दिला पाएंगे कि गाय केवल हमारी संस्कृति का प्रतीक नहीं, बल्कि जीवन और अर्थव्यवस्था का हिस्सा भी है? यही वह ज्वलंत प्रश्न है, जो धानसिया के एक पूर्व सरपंच के सहज सवाल से शुरू हुआ और आज पूरे समाज की चुनौती बन गया है।
-लेखक सामाजिक चिंतक व वरिष्ठ पत्रकार हैं

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *