धरती की गोद में उगी उम्मीद की फसल

आर्किटेक्ट ओम बिश्नोई.
जब होमो सेपियंस अपनी यात्रा के उन पड़ावों पर पहुँचा, जहाँ उसने अन्न उपजाना ठीक से सीख लिया, तब उसने नदियों के किनारे अपना ठिकाना बना लिया। अपने पशुधन के साथ, मिट्टी और मौसम के साथ, उसने बसना सीखा। यही वह दौर था जिसने मनुष्य को खानाबदोश से कृषक बनाया। तन ढकने की आवश्यकता ने उसे कपड़ा बनाने की दिशा में प्रेरित किया, कातने, बुनने की कला से लेकर आधुनिक करघों और मशीनों तक यह यात्रा सभ्यता की धड़कनों में दर्ज है।


कपास की कहानी भी इसी जरूरत से जन्मी। जब तन ढकने की ललक ने फसलों को दिशा दी, तब कपास या नरमा की फसल ने खेतों में उम्मीद के फूल खिलाए। बीज से लेकर मंडी तक का यह सफर केवल खेती नहीं, बल्कि एक सांस्कृतिक यात्रा है कृ एक उत्सव, एक जीवन-पद्धति। पुराने समय में जब रासायनिक कीटनाशक नहीं थे, तो कपास के खेतों में गुलगुले तलने की परंपरा थी। किसान परिवार खेत की क्यारियों में पकवान बनाते, उत्सव मनाते। यह माना जाता था कि उस समय तेल की महक और धुएं से फसल के हानिकारक कीट नियंत्रित रहते थे। खेत एक अनुष्ठान बन जाता था, और काम पूजा।


जब कपास के पौधों पर गुड़ियाँ (कली) खिलतीं और धीरे-धीरे रूई में बदलतीं, तो खेत की फिज़ा किसी मेले सी लगती थी। सफेदी की उस कोमल चादर में लिपटे खेतों को देखकर किसान परिवारों के चेहरे पर उम्मीद की चमक लौट आती थी, मानो धरती मां ने फिर से अपनी गोद में समृद्धि का बीज बो दिया हो।


सावणी की यह फसल जब चुगाई के बाद मंडी तक पहुँचती, तो यह केवल व्यापार नहीं, पूरा अर्थशास्त्र था, खेत, किसान, गांव और बाजार, सब एक ही धुरी पर घूमते। भारत जैसे लोक-उत्सवों के देश में अधिकतर त्यौहारों का संबंध फसलों के पकने या बुवाई से रहा है। कपास भी ऐसा ही लोक-त्योहार रहा है, जो खेतों से शुरू होकर परिवार की चौखट तक आता है।


फसल की पूरी चुगाई के बाद भी कुछ डोडियाँ अधपकी रह जाती थीं। किसान परिवार उन्हें तोड़कर घर ले आते। आंगन, बाखल में धूप में उन्हें सुखाया जाता। फिर दादियाँ, पोतियाँ, बहुएँ मिलकर डोडियों से कपास निकालतीं। यह केवल काम नहीं, बल्कि फसल का पारिवारिक उत्सव था, श्रम का संस्कार था। यही वह सहज शिक्षा थी जो बच्चों को बताती थी, प्रकृति में बिना परिश्रम कुछ नहीं होता।


आज वह दृश्य दुर्लभ हो गए हैं। आधुनिकता ने बाखलों से वह सामूहिक श्रम और आत्मीयता चुरा ली है। फिर भी जब मैंने बरसों बाद अपने किसान मित्र चरणप्रीत बराड़ के घर यह दृश्य देखा, तो लगा, जैसे समय पलट आया हो। माता और बच्चों के बीच की वह सादगी, वह श्रम की गरिमा, वही खेत की महक।
कपास के फूलों की ऋतु में, एक युवा किसान की पत्नी अपने प्रिय से प्यार भरी मनुहार करती है,
‘जदों पेंण कपाही फुल वे, मैंनू ओ रूत ले दे मुल वे।’
(जब कपास के फूल खिलें, मुझे वही मौसम खरीदकर दे देना।)
यही तो जीवन की सुंदरता है,
धरती की कोख से उगते फूलों में प्रेम की कोमलता,
और कपास की सफेदी में बसी आशा का उजास।
कपास केवल फसल नहीं,
यह धरती की गोद में उगी उम्मीद की कहानी है।

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