स्मृति शेष! नहीं रहे ‘नेताजी’ के रूप में विख्यात भाई जसपाल सिंह!

गोपाल झा.
नब्बे का दशक था वह। हनुमानगढ़ की सियासत के प्रमुख पांच सितारों का जलवा था। कॉमरेड शोपत सिंह मक्कासर, चौधरी आत्माराम, विनोद कुमार, डॉ. रामप्रताप और भाई जसपाल सिंह। जसपाल सिंह भले कभी विधानसभा चुनाव जीत न पाए लेकिन मैदान में उनकी मौजूदगी कांग्रेस और भाजपा नेताओं की धड़कनें बढ़ाती रहतीं कि आखिर जसपाल सिंह इस बार कितने वोट हासिल कर पाएंगे। वोटों की घटत-बढ़त से वे कांग्रेस और बीजेपी की राजनीति को प्रभावित करते रहे। ज्योतिष शास्त्र में एक शब्द है ‘राजयोग’। शायद, जसपाल सिंह अपने भाग्य के शब्दकोष में यह शब्द लिखाकर नहीं लाए थे।
भाई जसपाल सिंह हनुमानगढ़ के एकमात्र नेता रहे जिन्हें तीन नेशनल पार्टियों में बतौर प्रदेशाध्यक्ष काम करने का मौका मिला। वे कभी जनता दल के प्रदेशाध्यक्ष रहे तो कभी इनेलो और बसपा के। बाद में वे भाजपा के हो गए और आखिर तक भाजपा में ही रहे। कहना न होगा वे साढ़े तीन दशक में भले पार्टियां बदलते रहे लेकिन उन्होंने कांग्रेस की तरफ कभी रुख नहीं किया। इस लिहाज से देखें तो वे गैर कांग्रेसी राजनीति के ध्वजवाहक बने रहे, सिद्धांतों पर अडिग रहे।
भाई जसपाल सिंह का लहजा ठेठ था, ग्रामीणों जैसा। पंजाबियत से परिपूर्ण। यही अंदाज उन्हें आम आदमी से घुलने-मिलने में मददगार साबित होता था। लेकिन वे विभिन्न मसलों पर पैनी नजर रखते थे। उन्हें हर विषय का सूक्ष्म ज्ञान था। कानून के जानकार थे। लॉ ग्रेजुएट थे।
जब उनकी धर्मपत्नी श्रीमती सुरेंद्र कौर नगरपरिषद की सभापति निर्वाचित हुईं तो उन्होंने राजनीति में शुचिता का उदाहरण पेश किया। हां, इस बात का मलाल रहा कि वे व्यवस्था को बदल नहीं पाए।
राजनीति में थर्ड फ्रंट के कई दिग्गज नेताओं के साथ उनके आत्मीय रिश्ते थे। भले वे विश्वनाथ प्रताप सिंह, शरद यादव व मोहनप्रकाश हों या फिर रामविलास पासवान। मायावती के साथ भी उनके रिश्ते मधुर ही रहे। चौधरी ओमप्रकाश चौटाला हों या फिर वसुंधराराजे। भाई जसपाल अपनी सादगी और साफगोई के कारण सबके चहेते बने रहे।
पिता सरदार राम सिंह के सपने को साकार करने में जसपाल सिंह ने कभी अरुचि नहीं दिखाई। शिक्षा के क्षेत्र में गुरु हरिकृष्ण सीनियर सेकेंडरी स्कूल का विस्तार इसका प्रमाण है। स्टाफ के साथ आत्मीयता व उनके हितों को साधना कोई जसपाल सिंह से सीखे। कोरोना काल में जब शिक्षण संस्थानों का ढांचा बिगड़ गया तो भाई जसपाल सिंह ने दो टूक कहाकि सभी स्टाफ को घर बैठे वह तमाम सुविधाएं दी जाएं जिनके वे हकदार हैं। इन्हीं मानवीय सोच के कारण वे हरदिलअजीज बने रहे। कुछ वर्षों से वे बीमार थे। छोटे बेटे अमन सिंह संधू ही स्कूल मैनेजमेंट और व्यवसाय पर ध्यान दे रहे हैं। बेशक, यह उनका बेहतर फैसला था।
भाई जसपाल सिंह बहुत बड़े पढ़ाकू थे। ‘भटनेर पोस्ट’ मैगजीन पढ़कर वे अकसर फोन करते। आलेखों की समीक्षा करते। सुझाव देते। उन्हें प्रिंट मीडिया पर मंडरा रहे खतरों की जानकारी थी। फोन पर बात करते वक्त अपनी चिंता जाहिर करते। पूछते-मैगजीन चलाना तो हाथी पालने जैसा है। खर्चा कैसे पूरा करते हो ? आपसे तो विज्ञापन के लिए किसी को कहना भी मुश्किल है। कभी अपने स्कूल का भी विज्ञापन छाप दिया करो और बिल भेज दिया करो। आपकी पवित्र पत्रकारिता में कुछ तो हमारा भी योगदान होना चाहिए।’ ऐसे थे सरदार जसपाल सिंह। भला किसी को इतनी चिंता हो सकती है ?
भाई जसपाल सिंह का आकस्मिक निधन क्षेत्रीय राजनीति के लिए बड़ा नुकसान है। वे भले इहलोक छोड़कर चले गए लेकिन उनकी यादें हमेशा बनी रहेंगी। जब भी क्षेत्रीय राजनीति की बात होगी, भाई जसपाल सिंह की चर्चा के बिना वह अधूरी रहेगी। भले वे जनप्रतिनिधि न बन पाए लेकिन जननेता का खिताब उनके पास रहा। ‘नेताजी’ का संबोधन हासिल करने वाले एकमात्र थे भाई जसपाल सिंह। कोटि-कोटि नमन ‘भाई साब’!

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