एडवोकेट शंकर सोनी.
नागरिकता संशोधन अधिनियम यानी सीएए के लागू होने के साथ ही इस पर चल रहा विवाद चरम सीमा पर आ गया है। बुद्धिजीवी, धर्मनिरपेक्ष, राष्ट्रप्रेमी, संविधान प्रेमी, उन्मादी, स्वार्थी सभी चेहरे सामने आ रहे है। इस अधिनियम के विरुद्ध सर्वाेच्च न्यायालय में लंबित याचिकाओं पर सुनवाई शुरू हो चुकी है। इस नागरिक संशोधन अधिनियम के अनुसार 31 दिसम्बर 2014 के पहले से भारत में अफगानिस्तान, पाकिस्तान और बांग्लादेश से आए हिंदू, सिख, जैन, बौद्ध, पारसी और ईसाईयों को अवैध अधिवासी नहीं माना जाएगा और नियमानुसार औपचारिकताएं पूर्ण होने पर नागरिकता पंजीकरणक प्रमाण पत्र और देशीकरण प्रमाणपत्र दिए जाने हैं। इनके आधार पर नागरिकता दी जानी है। इस संशोधित अधिनियम में मुस्लिम वर्ग के लोगों को शामिल नहीं किए जाने पर भारत की धर्मनिरपेक्ष प्रतिबद्धता पर सवाल उठाया जा रहा हैं।
इस विषय पर विचार करने से पूर्व हम शरणार्थियों की समस्या के बारे में संक्षेप में विचार करेंगे। भारत में तिब्बत, बांग्लादेश, श्रीलंका, पाकिस्तान, अफगानिस्तान और म्यांमार में नागरिक संघर्ष और युद्ध के शिकार होकर आए दो लाख शरणार्थी हैं।
संयुक्त संसदीय समिति की जनवरी 2019 में आई रिपोर्ट में रॉ और आईबी द्वारा दी गई जानकारी के अनुसार, भारत में पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान से आए 31,313 शरणार्थी ऐसे लोग हैं, जो इन देशों में अल्पसंख्यक होने के कारण धार्मिक आधार पर प्रताड़ना के शिकार हुए थे। इन 31,313 शरणार्थियों में 25,447 हिंदू, 5807 सिक्ख, ईसाई 55, दो पारसी और दो बौद्ध हैं। इसी आधार पर भारत ने उन्हें लंबी अवधि का वीजा दिया हुआ है। स्मरण रहे, अन्य देशों में धर्म के आधार पर प्रताड़ित शरणार्थियों को भारत में शरण देने का अपना इतिहास है ।
यह भी ध्यान रखने योग्य है कि भारतीय कानून के अनुसार म्यांमार को छोड़कर हमारे पड़ोसी देशों के शरणार्थी सरकार से सीधे सुरक्षा की मांग कर सकते हैं।
किसी भी देश के शरणार्थी अपने मूल देश में जाने पर नस्ल, धर्म, राष्ट्रीयता, राजनैतिक या किसी विशेष समाज विशेष का सदस्य होने के कारण अपने उत्पीड़न की आशंका हो तो ऐसे शरणार्थी अंतरराष्ट्रीय सुरक्षा की मांग करते हुए संयुक्त राष्ट्र शरणार्थी उच्चायुक्त को आवेदन कर सकते हैं। ऐसे आवेदनों पर जांच के बाद यूएनएचसीआर पहचान पत्र के साथ दीर्घकालिक वीजा की अनुमति देती है। जहां तक सन 1951में संयुक्त राष्ट्र शरणार्थी सम्मेलन में हुए समझौते का प्रश्न है, इस पर भारत के हस्ताक्षर नहीं होने के कारण भारत आवश्यक रूप से शरणार्थियों को अधिकार और सेवाएं देने से संबंधित प्रोटोकॉल से बाध्य नहीं है।
जहां तक 1984 के यंत्रणा विरोधी संधि पर भारत के हस्ताक्षर होने का प्रश्न है भारत इस नियम से बंधा हुआ है परन्तु इस व्यवस्था में भारत को किसी को नागरिकता देने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता।
वर्तमान में भारत में पासपोर्ट अधिनियम-1920, विदेशी कानून, 1946 इत्यादि के अनुसार शरणार्थियों और आश्रय याचकों के प्रवेश के संबंध में विचार किया जाता है। ये कानून शरणार्थियों को अन्य विदेशियों के समतुल्य मानते हैं और इस बात का विचार नहीं करते कि मानवीय आधार पर उन्हें विशेष दर्जा मिलना चाहिए।
सबसे पहले यह विचारणीय है कि इस संशोधित अधिनियम में इस्लाम धर्म के अनुयायियों के नहीं रखे जाने से भारतीय मुसलमानों या अन्य किसी व्यक्ति के संवैधानिक मूल अधिकारों का कैसे हनन होगा ?
जहां तक मुसलमान शरणार्थियों का प्रश्न है वो भारत के नागरिक नहीं होने के कारण उन्हें हमारे संविधान के अनुच्छेद 19 में परिभाषित मौलिक अधिकार प्राप्त नहीं है। इसलिए इस आधार पर इस अधिनियम को सर्वाेच्च न्यायालय में चुनौती नहीं दी जा सकती। इस संबंध में हमारे सर्वाेच्च न्यायालय की संविधान पीठ ने हंस मुलर आफ न्यूनबर्ग बनाम प्रेसीडेंसी जेल कलकत्ता और मिस्टर लुइस डे रेड्ट बनाम भारत सरकार के मामलों निर्णय दिया हुआ है कि विदेशियों को संविधान के अनुच्छेद 21 के अंतर्गत जीवन और स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार अधिकार सीमित हैं।
विदेशियों को अनुच्छेद 19 (1) (ई) के अंतर्गत भारत में कहीं भी बसने और रहने का मौलिक अधिकार नहीं है। न्यायालय ने यह भी कहा कि भारत सरकार को विदेशियों को बाहर निकालने का असीमित और पूर्ण अधिकार है। वर्तमान मामले में भारतीय खुफिया एजेंसियों की रिपोर्ट के अनुसार, पाकिस्तान, अफगानिस्तान और बांग्लादेश आए हिंदू, सिक्ख, जैन, बौद्ध, पारसी और ईसाईयों धार्मिक आधार पर किए अत्याचारों से पीड़ित रहें है।
मानवीय संवेदनाओं के आधार यदि भारत सरकार मुस्लिम बहुसंख्यक नागरिकों के देश में धर्म के आधार पर अत्याचार से पीड़ित अल्पसंख्यक लोगों को विशेष कानून बनाकर वरीयता से नागरिकता देना चाहता है तो इसे असंवैधानिक नहीं कहा जा सकता। इस संशोधित अधिनियम से वंचित शरणार्थी 1951 में संयुक्त राष्ट्र शरणार्थी सम्मेलन में हुए समझौते से संबंधित प्रोटोकॉल और 1984 के यंत्रणा विरोधी संधि के आधार पर सरंक्षण हेतु आवेदन कर सकते हैं।
इस नागरिकता संशोधन अधिनियम का भारत के मुस्लिम नागरिकों के अधिकारों पर कोई विपरीत प्रभाव नहीं पड़ता। इसमें कहीं भी ऐसा प्रावधान नहीं है कि भारतीय मुस्लिम नागरिकों को पुनः नागरिकता लेनी पड़ेगी। वास्तविक मुद्दा राजनितिक दलों के धर्म आधारित वोट बैंक है। विरोधी दलों को डर है इस अधिनियम से भाजपा के हिन्दू वोट बढ़ेंगे। अब इंतजार है, हमारे देश के अग्रिम पंक्ति के नेता और विद्वान विधिवेत्ताओं बहस और माननीय उच्चतम न्यायालय के निर्णय का।
-लेखक वरिष्ठ अधिवक्ता और नागरिक सुरक्षा मंच के संस्थापक अध्यक्ष हैं
BISMILLAHHIRRAHEMANNIRRAHIM ASSALAMALAIKUM
Meai 1971 me Paida hua,or Ek Bhartiya Nagriq hu or mere waliden bhi yahi paida hua yahi bharat hi entaqal hua,
Mere Nasle bhi yahi paida hui
Ye kesa kanun he kaha le kar jayge desh ko