



राजेश चड्ढ़ा.
पँजाबी लोक सँगीत परंपरा, लोक अते मुख धारा दे सँगीत नूँ दर्शाैंदी है, जेड़ी पंजाब दे अमीर सभ्याचारक इतिहास अते जीवन शैली नाल ढूँगे तक जुड़ी होयी है। पँजाब विच जन्म तों लैके मौत तक वखरे-वखरे जश्न, त्योहार, धार्मिक समागम अते सामाजिक गतिविधियाँ नूँ गीताँ विच समेटन दी समर्थता सारी दुनिया जाणदी है।
एसे सिलसिले विच तकरीबन सत्तर साल पुराणा इक गीत है जिस नूँ पँजाब दी बुलबुल सुरिंदर कौर ने गाया है-
जुत्ती कसूरी पैरी ना पूरी, हाय रब्बा वे साँनू तुरना पेया
जिन्हाँ राहाँ दी मैं सार ना जाणाँ, ओन्हीं राहीं वे साँनू मुड़ना पेया
सौश्रे पिण्ड दियाँ लमियाँ वाटाँ, बड़ा पवाड़ा पै गया
यक्का ते बाश्रे कोई ना कीता, माहिया पैदल लै गया
लै मेरा मुकलावा ढोला, सड़के सड़के जाँवदा
कढेया घुँढ कुज कह ना सकदी, दिल मेरा घबराँवदा
जुत्ती कसूरी पैरी ना पूरी, हाय रब्बा वे साँनू तुरना पेया

एस गीत दियाँ भावनावाँ इक नवी व्याही औरत दे सँघर्ष नूँ दर्शाैंदियाँ हन, जेड़ी अपणे पति दे घर विच हो रही हर गल बात तों अनजाण है अते उस नाल अपणी गल तक साँझा करण विच सहज नहीं है। इन्हाँ बेआरामियाँ विच उह दिन होर वी दुःखदायी हो जाँदा है जदों उह नवीं पर बेआरामी जुत्ती पौंदी है अते अपणियाँ अड्डियाँ अते पैराँ दियाँ उँगलाँ दे पिछले पासे उन्हाँ जूत्तियाँ दे कटण नाल जूझदी रहँदी है।
मुश्किल होर वी वध जाँदी है जदों उस नूँँ उन्हाँ जुत्तियाँ नाल लँबी दूरी तय करणी पैंदी है। क्योंकि उस कोल होर कोई चारा वी नहीं है। दार्शनिक तौर ते कहिये ताँ, पशोपेश विच है अते अपणे भविख तों डरदे होये इक बिना जाणे रस्ते ते चलदेयाँ उस नूँ एह वी नहीं पता कि कित्थे जा रही है। उसदे पैराँ विच फालेयाँ वजहों दर्द वी है पर उसदा कँत इस गल दा अंदाज़ा वी नहीं लगा पा रेहा, क्योंकि नवीं व्याही ने घुँढ कढेया होया है। कँत नूँ कुज कह वी नहीं सकदी क्योंकि उसतों डरदी है। इस गीत विच, इन्हाँ कसूरी जुत्तियाँ नूँ पा के, नवीं व्याही एही कुज महसूस कर रही है।

भारत विच तकरीबन हर व्याही औरत अपणे व्याहे जीवन दे शुरुआती दिनाँ विच इक अनजाण आदमी नाल अनजाण जगह ते रह के एही महसूस करदी है। जित्थों तक कसूरी जुत्ती दा सवाल है, असीं सारे जाणदे हाँ कि भारत इक अजेहा देश है जो अपणियाँ परम्परावाँ नूँ सम्भाल के रखदा है। तुसीं किसे वी सूबे विच जाओ, तुहानूँ देखण लयी कुज ना कुज खास मिलेगा। किते कुर्ता मशहूर है ताँ किते दुपट्टा। पँजाब विच अजेहियाँ जुत्तियाँ वी मशहूर हन के देश-विदेश तों लोक उन्हाँ नूँ खरीदन लयी लाईनाँ विच लगदे हन। पँजाब दे फुलकारी दुपट्टे वाँग पंजाबी जुत्तियाँ दी शुरुआत वी काफी पुराणी है।

जुत्ती दी शुरुआत 16वीं सदी विच होयी सी। उस समाँ अमीर अते शाही परिवाराँ दे लोक ही जुत्ती पौंदे सन। जुत्तियाँ ते सोने अते चाँदी वरगे धागेयाँ नाल कढ़ाई कीती जाँदी सी। मुगल राणियाँ वी इन्हा नूँ पा के शाही ठाठ दिखौंदियाँ सन। हौली-हौली एह रिवाज़ वधदा गया।
असीं जो कुज वी पौंदे-हँडोंदे हाँ उन्हाँ चीजाँ दे नाँ दा कोई न कोई मतलब हुँदा है। जुत्ती लफ्ज़ वी उर्दू तों आया है। जुत्तियाँ दियाँ कयी किस्माँ हन। पर पँजाब दी कसूरी जुत्ती सब तों खास है। इन्हाँ जुत्तियाँ नूँ देखण तों बाद हर कोई कहँदा है कि पंजाबी जुत्ती कमाल है। पर लोक एह नहीं जाणदे कि आखिर कसूरी जुत्ती दी शुरुआत किंवे होयी। एह वी बहुत घट लोक जाणदे हन कि इसदे नाँ विच कसूरी लफ्ज़ दा पाकिस्तान नाल की ताल्लुक है।

दरअसल पाकिस्तान विच इक जिला है, जिसदा नाँ है कसूर। कसूर दे लोक वड्डी तादाद विच कसूरी जुत्ती तैयार करेया करदे सन। इसलयी जुत्ती दे नाल कसूरी नाँ जुड़ गया। अज तक लोक एसे कसूरी जुत्ती दी तारीफ़ करदे हन। इस नूँ बनौण दा तरीका बाकी सारी जुत्तियाँ तों वखरा हुँदा है।

कसूरी जुत्ती पाकिस्तान दे पँजाब सूबे दे कसूर शहर विच बणाई जाण वाली रवायती तौर ते हत्थाँ नाल बणी होयी जुत्ती है। कसूरी जुत्ती विच पंजाबी डिज़ाइन अते पैटर्न हन, जो इस नूँ इक विलखण शक्ल दिंदे हन। कसूरी जुत्ती बनौण लयी वधिया किस्म दे चमड़े दा इस्तेमाल कीता जाँदा है, जो इस नूँ मजबूत अते टिकाऊ बणौदा है। कसूरी जुत्ती हत्थाँ नाल बणी हुँदी है, जिस विच कारीगर अपणा हुनर अते कारीगरी दिखौंदे हन। सबतों खास गल एह है कि कसूरी जुत्ती आरामदायक हुँदी है अते पैराँ नूँ सहूलियत दिंदी है। कसूरी जुत्तियाँ ते कीती गयी कढ़ाई इन्हाँ नूँँ खास बणौंदी है। एह कढा़ई इनी बरीक हुँदी है कि इन्हाँ नूँ पौण तों बाद इन्हाँ दी खूबसूरती होर वध जाँदी है। इन्हाँ जुत्तियाँ दी इक होर पछाण एह है कि कसूरी जुत्ती अगे तों थोड़ी जेही मुड़ी होयी हुँदी है। जिस नाल इन्हाँ दा डिजाइन सब तों वखरा बण जाँदा है। एसे वजहों कयी सालाँ तों कसूरी जुत्ती लोकाँ दी पसँद बणी होयी है।
हालांकि हुण कसूरी जुत्ती पँजाब विच तैयार हुँदी है। पर नाँ अजे वी कसूरी जुत्ती ही है। इस समाँ जुत्ती बनौण दे बहोत सारे तरीके हन। पर फेर वी लोक हत्थ नाल बणियाँ जुत्तियाँ खरीदना अते पौणा ज्यादा पसँद करदे हन। एही कारण है कि पँजाब दे कयी शहराँ विच कयी परिवार सालाँ तों इस सभ्याचार नूँ अगे वधा रहे हन। वखरे-वखरे तरीके दियाँ जुत्तियाँ ते अपनी कला दिखाके ही इन्हाँ लोकाँ दा घर चलदा है। कसूरी जूती ना सिर्फ़ इक रवायती दस्तकारी है, सगों एह पँजाबी सभ्याचार दा इक खास हिस्सा वी है।
-लेखक आकाशवाणी के पूर्व वरिष्ठ उद्घोषक व लोकप्रिय शायर हैं

