



डॉ. दुलाराम सहारण
मानव स्वभाव है कि वह किसी के होने के अहसास से ही पल्लवित-पुष्पित रह सकता है। जरूरी नहीं कि उसका सामीप्य प्रतिदिन हो। सीमा पर तैनात जवान अपने परिजनों के अहसास-भर से हौंसला बटोर लेता है। विदेश में कमाने गए कर्णधार कई साल बाद देश आते हैं, परंतु आत्मीय जनों के सामीप्य अहसास में प्रतिदिन रहते हैं। इधर देश के विभिन्न शहरों में संघर्ष करते हम लोग गांव में घर, अभिभावकों के अहसास से निरंतर ऊर्जा हासिल करते हैं।
मेरे जीवन में ऐसे ही ऊर्जा स्रोत का नाम था-गौरीशंकर शर्मा का। यहां ‘था’ का प्रयोग बड़ा दुखद और मुश्किल है। परंतु यह कटुसत्य है। गांव से फोन आया है- गौरीशंकर भाईजी नहीं रहे। सहसा विश्वास नहीं हुआ! परंतु 2025 के 2 जुलाई के सत्य को नकारा भी तो नहीं जा सकता!
फोन के बाद से मन दुखी है। बार-बार स्मृतियों का बुगचा खुलने लगा है। गांव की गलियां, गवाड़, घर, बैठकें मानो सब पुनः जीविंत होकर उनकी उपस्थिति का अहसास करा रही हैं। किसी की उपस्थिति का अहसास और अधिक कौंधने लगता है जब न होने का सत्य सामने हो। न चाहते हुए भी, क्या भूलंू, क्या याद करूं जैसा होने लगता है।

गौरीशंकर भाईजी मेरे गांव भाड़ंग के पहले शिक्षित युवा थे जो घर के संघर्ष को संभालने परदेश यानी घर से बाहर कमाने निकले। 1960-70 के दशक की यात्रा जरिये जोशी ट्रेडर्स, मत्था बिल्डिंग, कैनिंग स्ट्रीट, कोलकाता उनका वहां ठहराव हुआ। कालांतर में घर संभला तो उधर उनका कारबार। कारबार की श्रेष्ठता में यश भी जुड़ा और जुड़ाव निरंतर रहा गांव का। अक्सर देखने में आता है कि गांव से एकबार निकल गया, वह गांव लौटेगा, संदेह होता रहता है। परंतु गौरीशंकर भाईजी ने वर्षों पहले गांव में पुश्तैनी मकानों के बगल में ही नया मकान बनाया, इस संकल्प के साथ कि दो-पांच महीने के क्रम में यहां आना है, रहना है। उन्होंने तय किया कि गांव में होली के रंग घुले, गवाड़ में कड़ाव रंग सींचे और दीपावली के दीपक हर घर को रौशन करें। उन्होंने संकल्प लिया कि आस्था स्थलों का पुनः उद्धार हों। स्कूल का कल्याण हो, अस्पताल का निर्माण हो। यही नहीं, उन्होंने तय किया कि गांव में वह सब हो जो नगर, महानगर में है।

यही कारण रहा कि उन्होंने गांव मंे बुर्जुग से लेकर बच्चे तक से स्वयं को जोड़े रखा। गांव से जो बाहर थे, उनसे भी निरंतर संपर्क रखा। यूं कहा जा सकता है कि प्रवासी होते हुए भी वे जुड़ाव की कड़ी बने रहे। बाद के वर्षों में जब उनका बेटा संजय काबिल बना और व्यवसाय हरियाणा के रोहतक में स्थापित किया तो उनका जुड़ाव और नजदीकी में आ गया। कोलकाता की दूरी 2008 से रोहतक की नजदीकी यात्रा की सुखद कड़ी रही। रोहतक, फरीदाबाद के यात्री होते हुए भी वे गांव की गवाड़ में ताश खेलते लोकजीवन के करीब के रहते।

बचपन में भाईसाहब के बच्चे संतोष, बबली, संजय संग खेलते वक्त सबने मिलकर उनका प्यार हासिल किया। संजय के साथ ही मैंने भाईसाहब के खजाने की राजस्थानी भाषा की किताबें टंटोली। कालांतर मेें जब मैं और मेरी सहधर्मिणी डॉ. कृष्णा जाखड़ कोलकाता की साहित्यिक यात्रा पर थे तो एकदिन हमारे घर के आग्रह से हम उनके रिसड़ा स्थित घर पहुंचे। वहां मैंने उन्हीं किताबों का जिक्र किया। भाईसाहब की आंखों की चमक देखने लायक थी। नजदीक बैठी भाभीजी की ओर देखते हुए आंखों में चमक थी और संवाद में ऊर्जा थी। यह बताते हुए उत्साहित थे कि उनकी मुलाकातें कन्हैयालाल सेठिया से रहीं, जिन्होंने राजस्थानी साहित्य की अलख देश-दुनिया में जगाई। उनकी मुलाकातें जुगलकिशोर जैथलिया से रहीं, जिन्होंने प्रवासियों को एक मंच दिया। उनकी मुलाकातें नथमल केड़िया से रहीं, जो शेखावाटी की धरती फतेहपुर से जाकर राजस्थानी साहित्य साधना में संलग्न रहे। रिसड़ा सेवक संघ, पारीक सभा की बातें, भ्रमण और भी न जानें क्या-क्या!

गांव में नवयुवक मंडल की गतिविधि हों या फिर अस्पताल के शिलान्यास का आयोजन। गौरीशंकर भाईजी ने न केवल बढ-चढकर भाग लिया अपितु आर्थिक भार भी वहन करने से न चुके। वे अपने पिता पंडित कुंदनमल पांडिया की शराफत तो कोलकाता की चतुरता के कुछ हिस्से के मिश्रण रहे। नसीहत, नोकझोंक के बीच से ‘ऊंचाई छूनी है तो विनम्र बनें’ की सोच के साथ उनकी सहयोग भावना प्रशंसनीय रही। उनके होने से हमें एक ऊर्जा मिलती रही। अब गांव से आया फोन उसी ऊर्जा के हा्रस का है। क्या कहा जा सकता है? शाब्दिक श्रद्धांजलि ही दी जा सकती है। अंतिम प्रणाम भाई साहब। विनम्र श्रद्धांजलि….।
-लेखक राजस्थान साहित्य अकादमी के पूर्व अध्यक्ष हैं





