सड़क पर सत्याग्रह करते रहेंगे किसान, आखिर कब तक ?

वेद व्यास.
हमें इस बात को सबसे पहले समझना होगा कि अब दुनिया चारों तरफ से बदल रही है। विज्ञान और प्रौद्योगिकी से, नई वैश्विक आर्थिक नीतियों से और जलवायु परिवर्तन से मनुष्य और समाज के सभी विरोधाभास गहरे और तेज हो रहे है। लेकिन दूसरे युद्ध के अनुभव को लेकर भी हम आज ये नहीं समझ रहे हैं कि हमारी ये दुनिया पहले से अधिक असमानता और सामाजिक अन्याय से पीड़ित है। हर एक देश में दो तरह के देश बनते जा रहे हैं। गांवों और शहरों के बीच, गरीबों और अमीरों के बीच, शिक्षा, स्वास्थ्य और मानवाधिकारों को लेकर भारी टकराव बढ़ रहा है।
समस्या आज ये है कि किसी भी देश की सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक और राजनैतिक व्यवस्था में समता और सद्भाव को लेकर स्थितियां सुख और शांति को नष्ट कर रही है। भारत में आजादी का अमृत महोत्सव के रंग-ढंग देखकर लगता है कि जहां शासन-प्रशासन, उत्सव मना रहा है, वहां आम जनता अपने अभाव-अभियोगों को लेकर ही जाति, धर्म, क्षेत्रीयता और भाषाओं के हथियारों से लड़ रही है। विकास भी हो रहा है, लेकिन असमानता, भूख, गरीबी, कुपोषण और सामाजिक अशांति भी बढ़ रही है।
विकास और परिवर्तन की इस महाभारत में जहां पांडव जीतकर भी हार रहे हैं, वहां कौरव हारकर भी जीत रहे हैं। जहां किसान अपने खेत-खलिहान छोड़कर सड़कों पर सत्याग्रह कर रहा है, वहां मजदूर कल कारखानों से विस्थापित होकर अपना दाना-पानी ढूंढ रहा है। कोरोना की एक महामारी के दुष्प्रभावों ने दुनिया की सभी तरह की सामाजिक-आर्थिक उपलब्धियों की पोल खोल दी है। दुनिया के कोई 200 देशों में केवल गरीब-बीमार अपनी दवा के लिए तरस रहे हैं और एक देश से भागकर दूसरे देश में शरणार्थी बनकर अपने सपनों को ढूंढ रहे हैं।
सोचने की बात ये है कि भारत जैसे विशाल लोकतंत्र में जहां सामाजिक-आर्थिक विषमताओं को लेकर गहरा शीत युद्ध का समाधान धर्म और जाति की पुरानी परम्पराओं, आस्थाओं, देव दर्शन और पुराने कर्म फल में खोज रहा है। ऐसे विभाजित सामाजिक-सांस्कृतिक माहौल में देश को एकता भी विविधता में बदल रही है। हमें इस प्रकृति को भी रोकने का प्रयास इसलिए करना होगा कि हमें विकास के साथ सद्भाव की ज्यादा आवश्यकता है और परिवर्तन के पहले सांस्कृतिक सहिष्णुता की जरूरत है। हम शासन व्यवस्था को धर्म, जाति, भाषा और क्षेत्रीयता के आधार पर मनचाहा विभाजित नहीं कर सकते। यदि देश एक शरीर है और एक आत्मा है तो फिर एक प्रकृति और न्याय ही उसका एक परमात्मा है।
आज हमारी दिक्कत ये है कि हम समाज के पिछड़े वर्गों को शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार से नहीं जोड़ रहे हैं। हम आदिवासियों को उनके जल, जंगल और जमीन से वंचित कर रहे हैं। हम महिलाओं को अपनी उपभोक्ता संस्कृति की तरह इस्तेमाल कर रहे हैं। हम युवाओं को बेरोजगार बनाते जा रहे हैं। हम बच्चों, बूढ़ों, अनाथों के प्रति उपेक्षा का बर्ताव कर रहे हैं। हम अपने अल्पसंख्यक समाज के प्रति शत्रुता और असहिष्णुता का व्यवहार करते हैं और तो और हम अपनी आजादी के संघर्षमय इतिहास को भी नकारते हुए संविधान और लोकतंत्र को कमजोर कर रहे हैं।
आज हमारे देश में गांव, गरीब और गांधी की मजाक बनाई जा रही है। चुनावों में अपराधी, बाहुबली, धर्म और जातीय सेनाओं तथा मतदाता को लोभ, लालच और दुष्प्रचार के मायाजाल में फंसाने का बोलबाला है। आज देश का नागरिक मानवाधिकारों से वंचित है और न्याय पाना इतना महंगा और दुर्लभ हो गया है कि गुरुदेव रविन्द्रनाथ टैगोर के लिखे राष्ट्रगान में स्थापित जन गण मन‘और भारत भाग्य विधाता की परिभाषा ही बदल गई है और हम महात्मा गांधी के बताए सत्य के प्रयोगों का दमन कर रहे हैं। हम निरंतर असहिष्णु और अराजकतापूर्ण समाज बना रहे हैं।
आज हमारा महान भारत विकास का मुखौटा लगाकर अपनी असहिष्णुता के चेहरे को छिपा रहा है, क्योंकि हम हजारों साल बाद भी असत्य और अहिंसा की मानसिकता से पीड़ित है और गांव और गरीब को आसमान के तारे तोड़कर लाने का केवल सपना दिखा रहे हैं। अतः विकास को सद्भाव से जोड़िए और देश को सांस्कृतिक एकता की दिशा में आगे बढ़ाइए। क्योंकि समय बदल रहा है।
(लेखक वरिष्ठ साहित्यकार व पत्रकार हैं)

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