कुदरत को दीजिए स्वभाव के अनुरूप विकसित होने का अवसर

ओम पारीक.
धरती को मानव सभ्यता ने सदियों से ‘मां’ के रूप में संबोधित किया है। यह केवल एक सांकेतिक भाव नहीं बल्कि जीवन का शाश्वत सत्य है। धरती ही वह आधार है जिस पर हमारा जीवन टिका है। समुद्र, पहाड़, मैदान, मरुस्थल और असीम प्राकृतिक संसार इसी का विस्तार हैं। इस धरती पर विशालकाय वृक्षों से लेकर अदृश्य सूक्ष्म जीवों तक, खरपतवार से लेकर दुर्लभ वनस्पतियों तक, हर स्तर पर जैव विविधता हमें जीवन का वास्तविक स्वरूप दिखाती है।


जीवन का आधार ‘भक्षण-पोषण’ की प्रक्रिया पर ही टिका है। कहीं कोई खाद बनता है तो कहीं कोई खाद्य। यही प्रकृति का नियम है, यही सृष्टि की निरंतरता का रहस्य है। लेकिन इस अद्भुत संतुलन को बिगाड़ने में सबसे बड़ी भूमिका इंसान ने निभाई है। सभ्यता के विकास के साथ ही मनुष्य ने प्रकृति को अपना साधन समझ लिया। अपने उद्देश्यों की पूर्ति के लिए उसने वनों को काटा, नदियों का रुख मोड़ा, पर्वतों को तोड़ा और धरती के गर्भ से अंधाधुंध खनन किया। इसका परिणाम आज हमारे सामने प्रदूषण और जलवायु परिवर्तन के रूप में खड़ा है।


हवा, पानी, मिट्टी, अग्नि और आकाश, पंचमहाभूत, जिन्हें भारतीय संस्कृति में जीवन का आधार माना गया है, आज सबसे अधिक प्रदूषित हो चुके हैं। जलस्रोत सूख रहे हैं, वनों की घनत्व घट रहा है, वायु शुद्धता खो रही है और मिट्टी अपनी उर्वरता गंवा रही है। यह सब जैव विविधता के अस्तित्व के लिए गंभीर खतरा है। नतीजा यह है कि अनेक प्रजातियां विलुप्त हो रही हैं और शेष भी असुरक्षा की स्थिति में जी रही हैं।


प्रकृति ने जंगलों को अपने नियमों से सजाया-संवारा है। जंगल केवल पेड़ों का समूह नहीं होते बल्कि एक जीवंत पारिस्थितिकी तंत्र होते हैं। यहां की मिट्टी, जल, वृक्ष, जीव-जंतु और सूक्ष्म जीव मिलकर जीवन का संतुलन बनाए रखते हैं।


आज हम इन जंगलों को गमलों में समेटने की सोच रहे हैं, कृत्रिम बागवानी को ही हरियाली मानने लगे हैं। लेकिन यह समझना जरूरी है कि जंगल के अपने कानून हैं, जिन्हें बदलना न केवल असंभव है बल्कि घातक भी। प्रकृति से छेड़छाड़ का हर प्रयोग हमें आपदा के रूप में ही जवाब देता है, कभी बाढ़, कभी सूखा, कभी भूकंप, तो कभी महामारी।


वन महोत्सव केवल पौधे लगाने का औपचारिक आयोजन नहीं है। इसका मूल उद्देश्य होना चाहिए, प्रकृति को उसके स्वभाव में विकसित होने का अवसर देना। हमें यह मानना होगा कि वृक्षारोपण तभी सार्थक है जब पौधों को जीने का वातावरण मिले। केवल कागजी औपचारिकताओं से हरियाली नहीं आती, बल्कि धरती से जुड़कर प्रकृति के साथ सामंजस्य बिठाने से ही जीवन सुरक्षित होता है।


वनस्पति और जीव-जंतु अपने आप विकसित हो सकते हैं, यदि हम उन्हें बाधित न करें। हमें बस अपनी लालसा और लालच को नियंत्रित करना है। धरती हमसे दया की भीख मांग रही है कि उसे अपने स्वभाव में जीने दिया जाए। यदि हम ‘जियो और जीने दो’ के सिद्धांत को अपनाएं तो धरती निश्चित ही हमें शस्य-श्यामला स्वरूप में स्वर्ग से सुंदर जीवन प्रदान करेगी। ऐसी धरती पर न रोग होंगे, न आपदाएं, न भयकृबल्कि शांति, निरोगता और समृद्धि होगी। वनों का संरक्षण केवल पेड़ों की रक्षा नहीं, बल्कि संपूर्ण जीवन रक्षा है। यह मानव सभ्यता की निरंतरता का प्रश्न है। इतिहास गवाह है कि जब-जब मनुष्य ने प्रकृति से छेड़छाड़ की है, तब-तब सभ्यताएं विनाश को प्राप्त हुई हैं।


आज समय की मांग है कि हम अपने भीतर झांककर देखें, क्या हमारी प्रगति धरती को विनाश की ओर धकेल रही है? क्या हमारा विकास दूसरों के जीवन का अंत बन रहा है? यदि उत्तर ‘हां’ है तो हमें अपनी राह बदलनी होगी। धरती हमारी मां है। उसका सम्मान और संरक्षण करना ही हमारी सबसे बड़ी जिम्मेदारी है। वन महोत्सव का उद्देश्य भी यही होना चाहिए कि हम प्रकृति को उपभोग की वस्तु नहीं, बल्कि उपहार समझें और उसके साथ सह-अस्तित्व का मार्ग चुनें। तभी आने वाली पीढ़ियां स्वस्थ, सुरक्षित और समृद्ध जीवन का आनंद उठा सकेंगी।

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