गोपाल झा.
‘लोकतंत्र की मुख्यधारा सहिष्णुता रही है। इसकी अनुपस्थिति में चुनाव, विधायिका आदि निर्जीव हैं। सहिष्णुता भारतीय संस्कृति का आधार है। यह हमें जनता की बड़ी इच्छाओं को जानने की शक्ति देता है।’
जनसंघ के संस्थापक पंडित दीनदयाल उपाध्याय की इस बात का मौजूदा भारत में क्या अर्थ है ? खासकर तब, जब पिछले एक दशक यानी दस बरस से उसी विचारधारा की पार्टी सत्ता में हो। देश का किसान एक बार फिर नाराज है। नाराजगी का पुख्ता कारण है। केंद्र सरकार ने एमएसपी की गारंटी का वादा पूरा नहीं किया। किसान राह देखते रहे, सरकार इसे टालने का भरसक प्रयास करती रही। अब चूंकि लोकसभा चुनाव की आहट सुनाई देने लगी है। संभव है, मार्च के दूसरे सप्ताह तक आचार संहिता लागू हो जाए, किसानों और केंद्र सरकार के बीच टकराव की स्थिति बेहद चौंकाने वाली हैं। आखिर क्या वजह है, केंद्र सरकार किसानों की मांगों और आंदोलन की परवाह नहीं करती ?
याद कीजिए, अन्ना आंदोलन का दौर। मीडिया गंभीरता के साथ बेखौफ कवरेज कर रहा था। 24 घंटे आंदोलन का लाइव प्रसारण। विपक्ष उस आंदोलन में बढ़ चढ़कर हिस्सा लेने के लिए आतुर था। ‘बाबा टाइप’ के उद्यमी भी आंदोलन को समर्थन देने में पीछे नहीं रहे। आंदोलनकारियों को बदनाम के लिए कोई ‘आईटी सेल’ न था। हर कोई तत्कालीन यूपीए सरकार व उसकी नीतियों के खिलाफ।
बेशक, अन्ना आंदोलन से कहीं बड़ा आंदोलन है किसानों का। बावजूद इसके मीडिया का बड़ा तबका आंदोलन को ‘बदनाम’ करने में कोई कसर नहीं छोड़ रहा। शासन में बैठे लोग आंदोलन को कुचलने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे। ‘आईटी सेल’ और सत्तापक्ष के ‘बयानवीर’ आंदोलनकारियों के खिलाफ निरंतर विषवमन करने से नहीं चूक रहे। सरकारी एजेंसियों से डरा, सहमा और घबराया सा विपक्ष जेल की सलाखों से बचने के लिए ‘मोदी शरणम् गच्छामि’ का जाप करता दिखाई दे रहा है। जरा सोचिए, सरकार के खिलाफ आवाज उठाना आसान है क्या ?
कहने को भले पंडित दीनदयाल उपाध्याय की विचारधारा वाली सरकार हो लेकिन वह दिखने में तो वैसी नहीं लगती। पंडित जी विरोध को लोकतंत्र के लिए जरूरी मानते थे और यहां विरोध का एक शब्द सुनना भी सहन नहीं।
देखा जाए तो आंदोलनों के प्रति सरकार की उपेक्षा का बड़ा कारण है जनता का ‘बहक जाना’। सरकार ने जनता की दुखती रग पर हाथ धर रखा है। वो दुखती रग है धर्म और आस्था। दरअसल, सरकार अपनी योजना में सफल है। उसे पता है कि जनता को यही पसंद है, इसलिए वह हर तरीके के विरोध को ‘निर्दयतापूर्वक’ खारिज करती रही है। जब जनता ‘धर्मभीरू’ हो जाए तो फिर उस सरकार से ‘बेहतर’ की उम्मीद बेमानी है।
कहना न होगा, आने वाला वक्त और भयावह होगा। लोकतंत्र में आंदोलन जनता का मिजाज भांपने का पैमाना होता है। डेढ़ साल तक सड़क पर बैठे रहना आसान नहीं। केंद्र सरकार उस वक्त भी सच्चाई समझने में देरी कर बैठी और इस बार भी अपनी ‘गलती’ दोहराने पर आमादा है। बेहतर होगा, सरकार किसानों की मांगों पर गौर करे। सनद रहे, केंद्र में पिछले दस साल से उसी बीजेपी की सरकार है जिसके नेता और कार्यकर्ता यूपीए शासन के दौरान स्वामीनाथन आयोग की रिपोर्ट लागू करने की मांग को लेकर खुद ‘आंदोलनजीवी’ की भूमिका निभाते थे। सत्ता में आने के बाद ऐसा क्या हो गया कि सरकार किसानों से दूरी बना बैठी ? सचमुच, जब सरकार ‘हठयोगी’ हो जाए तो उससे ‘भिड़ना’ आसान नहीं होता। मौजूदा समय में यही हो रहा है। ऐसे में आंदोलन का अंजाम क्या होगा, राम जाने!
-लेखक भटनेर पोस्ट मीडिया ग्रुप के चीफ एडिटर हैं