शंकर सोनी.
स्वतंत्रता संग्राम में जनजातीय प्रतिरोध आंदोलनों की विशेष भूमिका रही है। तिलका मांझी के नेतृत्व सन 1780 में संथाल में दामिन आन्दोलन हुआ। बुधू भगत के नेतृत्व में 1830-32 में लरका आंदोलन हुआ। सन 1855 में सिंधु-कान्हू क्रांति के नेतृत्व में आन्दोलन हुआ में। इनके अलावा टंटया भील, जोरिया भगत और गोविंद गुरु, रानी गैदि-लयू, लक्ष्मण नायक और वीर सुरेंद्र साई जैसे आदिवासी नेताओं ने भी ऐतिहासिक भूमिका निभाई थी।
आदिवासी मुंडा लोगों ने एक आंदोलन की शुरुआत की थी जिसे उन्होंने ‘उलगुलान’ का नाम दिया था। ब्रिटिश कालीन भारत में अंग्रेज बड़े जमींदारों की मार्फ़त किसानों से जमीन का लगान वसूल करते थे। वनवासी लोग अशिक्षित थे जिसके कारण बनवासी लोगों का सेठ साहूकार व जमीदार शोषण करते थे।
बिहार में 1899 से 1900 तक बिरसा मुंडा के नेतृत्व में मुंडा विद्रोह हुआ।
इसके मूल में आज़ादी का सपना था। बिरसा स्वराज का पक्षधर था। बिरसा आंदोलन का नारा था-
तुन्दु जाना ओरो अबुजा राज एते जाना
अबूया राज एते जाना महारानी राज टुडू जाना
(यानी अब मुंडा राज शुरू हो गया है और महारानी का राज ख़त्म हो गया है)
अबुआ दिसोम रे, अबुआ राज’ (यानी ये हमारा देश है और हम इस पर राज करेंगे. आदिवासियों को जंगल के संसाधनों का इस्तेमाल करने से रोक दिया गया था। मुंडा लोगों ने एक आंदोलन की शुरुआत की थी जिसे उन्होंने ‘उलगुलान’ का नाम दिया था।
मुंडा आंदोलन के बाद अंग्रेजों ने छोटा नागपुर काश्तकारी अधिनियम 1908 में लागू कर मुंडा आंदोलन की कुछ मूलभूत मांगों का निराकरण किया गया था। अंग्रेजों ने कानून बनाया था कि बनवासी की भूमि को अन्य कोई नहीं खरीद सकेगा। जनजातीय आन्दोलन का पहला लक्ष्य जल, जंगल व जमीन जैसे संसाधनों की रक्षा करना, दूसरा नारी समाज की सुरक्षा तथा तीसरा अपनी संस्कृति की मवाद को बनाए रखना रहा है।
आज आजादी के 77 वर्ष बाद आज भी वनवासी लोगों को अपने मूलाधिकार प्राप्त नहीं है। वनवासियों की भूमि बलपूर्वक छीन ली गई है। वनवासियों के भरण पोषण का कोई साधन नहीं है। सरकारें की मदद से बड़े पूंजीपतियों को वनवासियों को उनकी भूमि से बेदखल किया जा रहा है।
अब तो वनवासियों के क्षेत्र में भी राजनीति होने लगी है। वनवासियों का आंदोलन राजनीतिक शिकार हो गया है। इसे उग्रवादियों का आवरण पहना दिया गया है। मध्य प्रदेशख् गुजरात, तेलंगाना, महाराष्ट्र, हिमाचल, ओडिशा, राजस्थान, आंध्र प्रदेश, झारखंड, छत्तीसगढ़ के अलावा भी अन्य राज्यों में वनवासी लोग रह रहे हैं।
सन 2011 के आंकड़ों के अनुसार भारत में 10 करोड़ 42 लाख 81 हजार 34 बनवासी है। हमारे संविधान के अनुसार भी अनुसूचित जाति जनजाति आयोग बनाने के प्रावधान है।
परंतु आज तक देश में दो बार आयोगों का गठन हुआ। वासियों के लिए कोई नीति नहीं बनी है। वनवासी मुख्यमंत्री भी रहे परंतु आम वनवासी की हालत आज भी चिंताजनक है। अब आदिवासी राष्ट्रपति से आदिवासी वर्ग की तरफ से अपेक्षा की जाती है कि उनके अधिकारों की रक्षा होगी।
-लेखक नागरिक सुरक्षा मंच के संस्थापक और कानूनविद् हैं