डॉ. कृष्णकांत पाठक.
इस जग के घट-घट में राम, क्यों हृदयपटल पर सबके राम नहीं।
चित्रपटी नायक पर मोहित, महानायक क्यों उसे अभिराम नहीं।।
आदर्श धर्म में हो चाहे, पर भला कब संप्रदाय से आबद्ध हुए वे,
एक पूर्वज से जन्म लिये जब, क्या भेद कि एक धर्म में नाम नहीं।
मर्यादा रचना, रखना और बचाना, सदा ही कठिन रहा जगत् में,
सत्य, त्याग, शील, विनय, पराक्रम किसके हैं फिर धनधाम नहीं।
हर मूरत मानव ही गढ़ता है, परमात्मा तो अनगढ़ ही देता है,
परिक्रमा है पाषाणी ही, फिर सुंदर प्रतिमा क्यों प्रतिमान नहीं।
कुछ तो हुआ विलक्षण होगा, कथा जो लक्षाधिक ग्रंथों में गूँजी,
जो युगगाथा चली सहस्रों वर्षों तक, जिसे मिला विराम नहीं।
आत्मा परमात्मा के भेद मिटाकर देखो, हर नाम राम का ही तो,
हर काम राम का, राम काम किये बिना हमें कभी विश्राम नहीं।
नहीं! मैं बल से, छल से, ग्रंथ की ग्रंथि न देने को उत्सुक होऊँ,
प्रेम जो उमड़े, सहज ही जन्मे, धर्म में तलवारों का काम नहीं।
तैंतीस कोटि में, सहस्रनाम में, नाम हजारों जुड़ जाएँगे मेरे,
राम-राम कह मिलेंगे तुमसे, भले कहो तुम जय श्रीराम नहीं।