आइए … अब पतंग बन जाएं!

आर्किटेक्ट ओम बिश्नोई.
पतंग का नाम सुनते ही जो पहला ख्याल आता है वो ये कि आसमानों को छू लें। हल्का महसूस करें जीवन की जटिलताओं से और इसकी दुश्वारियों से भी। अगर जीवन में इस दौर को जीया है तो समय की चरखडी को रिवर्स घुमाकर पीछे लौट जाएं। पीछे जाकर महसूस करें उस दौर को, जब कांधे बिल्कुल बोझ मुक्त थे।
कभी अपने आसपास पतंगों के पीछे ‘पतंग’ हुए बच्चों को देखना बडा ही लाजवाब अनुभव है। ये मुस्कुराहट बरबस भीतर उतर जाती है। इस दृश्य से शर्त बस इतनी कि रेस ने तुम्हे भीतर तक सुखा ना दिया हो।
यूं तो पतंग और पतंगबाजी का इतिहास बहुत पुराना है। कोई भी इंनसाइक्लोपीडिया पढ लेगा। फसलें अब बडे दिन होने के साथ नए कलेवर लेंगी। बढवार के साथ ऑर किसानों के चहरों पर रॉनकें अपनी परवान चढेंगी। इन दिनों शहर में बच्चे गली कूचों में पंतग के साथ पतंग हुए हैं, हमें भी बच्चे दिखे गलियों में पतंग जैसे बने हुए।
भारत का भूभाग बहुत सांस्कृतिक व विविधतापूर्ण है। अब लोहड़ी से मकर संक्रांति से असम का बीहू, मकर विलाकू, पोंगल से बैसाखी सब फसलों के त्योहार बसंत भर चलेंगेफ गेहूं कि बालियों के सुनहरे होने से कटने तक।
आज मैंने भी अपने दोस्त के घर लाजवाब भोजन के बाद संक्रांति की धूप उसके आंगन में सेंकी। दो पतंग उसके आंगन में भी आ गिरी कट कर। दोस्त को मैंने पतंग होते देखा। उनके चेहरे की रौनक आसमानी थी, रील समेटते पतंग सहेजते। अंततः जीवन का उद्देश्य ही खुश रहना है। बोझ कंधों व दिमाग से हटाकर, उत्सव व त्योहार यही सब काम करते हैं। किसी दिन कोई पहुंचा हुआ फकीर (लखटकटिया टेंट वाला नहीं) मिलेगाफ आपको भी जीवन में तो समझा देगा फिर कहेगा, ‘जा….तेरा जीवन पतंग हो जाए। और तू बादशाह हो जाए। अपने जीवन का। उत्तरायण का सूरज मुबारक।

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