गोविंद गोयल.
श्रीराम नाम के स्मरण, उच्चारण और जयघोष करने से मन को सुकून मिलना चाहिए। मन मेँ विनय का भाव आना चाहिए। चेहरे पर सौम्यता महसूस हो। मन के अंदर त्याग की भावना जागृत होनी चाहिए। अगर ऐसा नहीं होता तो फिर ये समझ लेना चाहिए कि श्रीराम नाम के स्मरण, उच्चारण और जयघोष मेँ श्रद्धा, भक्ति और प्रेम का अभाव है। स्मरण मेँ नाम के प्रति आग्रह नहीं है। उच्चारण के समय श्रीराम के प्रति आस्था नहीं है। क्योंकि श्रीराम तो विनय के प्रतीक हैं। श्रीराम सौम्यता की मूरत हैं। वे विनम्रता की पहचान है। त्याग के उदाहरण हैं। श्रीराम नाम को सत्ता प्राप्ति के लिए इस्तेमाल करने वाले शायद श्रीराम को ठीक से जानते और समझते ही नहीं। श्रीराम की सोच विस्तारवाद की नहीं थी। बाली का वध कर राज उनके अनुज सुग्रीव को दिया। रावण को मार विभीषण को लंका का राज दिया। अगर सत्ता का लालच श्रीराम को होता तो वे ऐसा कदापि नहीं करते।
खैर! तब त्रेता युग था और आज कलियुग। मगर ये कहना कोई अनुचित नहीं कि बात-बात पर श्रीराम का का घोष, स्मरण और उच्चारण करने वाले कम से कम अपने श्रीराम को समझ तो लें! उनको जान तो लें कि वो कौन थे? उनका स्वभाव क्या था? उनकी सोच कैसी थी? उनका आचरण क्या था? उनका किसके प्रति कैसा व्यवहार था? ऐसे सम्मानित नागरिक कुछ और नहीं कर सकते तो कम से कम रामचरितमानस को ही समझ लें! जिसमें ये बताया गया है कि किस व्यक्ति से कैसा व्यवहार करना चाहिए। दुश्मन के साथ कैसा व्यवहार हो, इसका जिक्र भी मानस मेँ मिल जाएगा।
श्रीराम नाम किसी को डराने के लिए नहीं बल्कि अभय करने के लिए है। अंदर बाहर के डर को दूर करने के लिए इसका स्मरण, उच्चारण किया जाता है। श्रीराम तो किसी को किंचित मात्र भी पीड़ा पहुंचाने के हक मेँ नहीं थे। उन्होने तो कभी अपने बल का गुरूर नहीं किया। सीता स्वयंवर मेँ उन्होने सरल, सलिल और विनम्रता से धनुष को उठाकर तोड़ा। परशुराम के क्रोधित होने पर भी वे मुस्कुराते रहे। उनके क्रोध को भी मुस्कान से जीता। क्योंकि श्रीराम के स्वभाव मेँ क्रोध था ही नहीं। वे तो दयालु हैं। करुणामय हैं। शरणागत हैं। मर्यादा, विनय, मुस्कुराहट, सबको गले लगाने की चाह उनके आभूषण हैं।
तभी तो वो सामाजिक रूप से बहिस्कृत हो पत्थर बनी अहिल्या के घर जा उसे सामाजिक मान्यता प्रदान करते हैं। शबरी के झूठे बेर खाते हैं। अपने अनुज लक्ष्मण को मरणासन्न लंकापति के पास नीतिज्ञान लेने के लिए भेजते हैं और साथ मेँ बताते हैं कि ज्ञान चरणों की ओर खड़ा होकर, विनय करने से ही प्राप्त हो सकता है। वो बिना किसी विरोध के वन गमन करते हैं। किसी को किंचित मात्र भी दुख, पीड़ा देने का वे सोच भी नहीं सकते थे। निखादराज को गले लगाते हैं। केवट को प्रसन्न करते हैं। ऋषि मुनियों के मार्गदर्शन मेँ आतताइयों का सर्वनाश कर ऐसा शासन देते हैं जो राम राज कहलाता है।
एक व्यक्ति के सवाल करने पर अपनी पत्नी का त्याग कर राजधर्म निभाते हैं। श्रीराम का नाम तो क्लेश मिटाने वाला है। क्लेश करने वाले श्रीराम तो हो ही नहीं सकते। वे कलुषित हैं ही नहीं। खुद श्रीराम क्या, उनका तो नाम भी निर्मल है। हालांकि श्रीराम ने कभी ये नहीं कहा होगा कि उनका नाम कौन ले और कौन श्रवण करे। उनकी नजर मेँ तो कोई भी उनके नाम का स्मरण, उच्चारण और घोष कर सकता है परंतु त्रेतायुग से कलयुग आते आते बहुत कुछ बदला तो ये भी बदल गया होगा कि नाम कौन ले? किस भाव से ले और किस भाव से नाम लेने से उसका क्या प्रतिफल मिलेगा।
श्रीराम नाम के स्मरण, उच्चारण और घोष के समय जैसे भाव होंगे, सोच होगी, उसके परिणाम भी वैसे ही होंगे। यही सब कुछ श्रीराम का नाम श्रवण करने वालों पर भी है। संभव है श्रवण करने वाला तो श्रीराम को जानता और समझता ही ना हो। परंतु श्रीराम के नाम का स्मरण, उच्चारण और जयघोष करने वाले से तो यह उम्मीद स्वाभाविक है कि वह उनको जानता होगा, जिनके नाम का स्मरण कर रहा है। जिसकी जय जय कार कर रहा है। हाँ मात्र सत्ता के लिए श्रीराम का स्मरण, उच्चारण और घोष करने वाले शायद श्रीराम को समझ नहीं पाए हैं। मालूम नहीं, समझना चाहते भी हैं या नहीं।
-लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं