गोपाल झा.
सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुःखभाग्भवेत्।
अर्थात, सभी प्राणी मात्र सुखी हों, सभी संतुष्ट हों, निरोगी हों, सभी सज्जन हों, किसी को किसी भी प्रकार का दुःख न रहे। यह सनातन का मूल है। आत्मा है। सत्य सनातन वैदिक धर्म की परिकल्पना वसुधैव कुटुंबकम् की है।
जरा सोचिए, जिस सनातन धर्म का उपनिषद इस तरह के श्लोकों से धर्म का मर्म बताता हो, वह कट्टर कैसे हो सकता है ? लेकिन आज सनातन धर्मावलंबियों को कट्टर बनने की सीख दी जा रही है। दूसरे धर्मों से इतर बताने के लिए उकसाया जा रहा है। ठीक उसी तरह जैसे पाकिस्तान के हुक्मरानों ने इस्लाम को पेश किया। आज पाकिस्तान दुनिया में अकेला पड़ चुका है, आर्थिक रूप से तंगहाल है, उपेक्षित है। सवाल यह है कि भारत भी पाकिस्तान के रास्ते पर है ?
सच तो यह है कि सनातन धर्म में कोई कट्टरता नहीं है और यह जीवन जीने का एक तरीका है। लेकिन इस धर्म के साथ खिलवाड़ तो हो रहा है। इसकी बुनियाद पर प्रहार तो हो रहा है। आखिर, सनातन धर्म के साथ कौन खेल रहा है ? बेशक, सत्ता सुख के लिए धर्म को राजनीति में घसीटने वाले सियासतनदान।
राजनीति तो खुद एक धर्म है। इसे ‘राजधर्म’ कह सकते हैं। जहां पर संविधान सर्वोपरि है। भारत जैसे देश में जनप्रतिनिधियों के लिए संवैधानिक मूल्यों के अनुरूप आचरण करना जरूरी होता है। लेकिन ऐसा हो रहा है क्या ? जब सत्ता के शीर्ष पर बैठे लोग ‘पाखंड’ की पराकाष्ठा को पार करने लग जाएं और आम जनता सत्ताधीशों की ‘जय-जयकार’ करने में जुट जाए तो समझिए उस देश का गर्त में जाना तय है। अगर आज के दौर को आप सनातन धर्म का स्वर्णकाल मान रहे हैं तो आप दिग्भ्रमित हैं। सच तो यह है आज सनातन धर्म का ‘संक्रमणकाल’ है। परिवर्तन संसार का नियम है और सत्ता का भी। इस दौर का भी अंत तय है। सत्ता के लिए धर्म, समाज और देश को दांव पर लगाने वाले भी चले जाएंगे लेकिन भारत तो वही रहेगा। हां, सत्तासीन लोगों के बोए हुए बीज ‘विषवृक्ष’ बन जाएंगे जो हमारी पीढ़ियों को मर्माहत करते रहेंगे, बेचैन करते रहेंगे। इस सच को स्वीकारना ही होगा।
याद कीजिए, अयोध्या में श्रीराम लला की प्रतिमा का प्राणप्रतिष्ठा समारोह। चारों शंकराचार्यों के विचारों को अनसुना कर दिया गया। वही शंकराचार्य जिनके मुख से ईश्वर की वाणी निकलती है, ऐसा बताया जाता रहा है। वे सनातन धर्म के आधार स्तंभ बताए जाते रहे हैं, सर्वोच्च महापुरुष। लेकिन सत्ताजीवियों की बेलगाम मूर्खों की टोलियां शंकराचार्यों को भी निशाना बनाने से नहीं चूकी। अगर फिर भी आप इस दौर को सनातन धर्म का स्वर्णकाल कहते हैं तो फिर आपसे कुछ नहीं कहना। श्रीराम ने बचपन से लेकर आखिर तक मर्यादा का ही पालन किया और उन्हीं की प्रतिमा के प्राण प्रतिष्ठा समारोह में मर्यादाएं तार-तार हो गईं और धर्मभीरू लोगों के माथे पर शिकन तक नहीं?
इन वर्षों में एक बात स्पष्ट हो गई। अगर आप सफल होना चाहते हैं, भौतिक सुख भोगना चाहते हैं, नामदार होना चाहते हैं, सत्ता के शीर्ष पर सवार रहना चाहते हैं तो आपको कुछ नहीं करना। बस, धर्म के साथ ‘खेलना’ है। उस दीमक की तरह जो पेड़ से यूं चिपकता है जैसे उस पेड़ से अधिक लगाव किसी से नहीं लेकिन धीरे-धीरे वह उसे भी चट कर जाता है।
धर्म सार्वजनिक प्रदर्शन का विषय नहीं, विशुद्ध रूप से निजी और वैचारिक मसला है। नैतिकता की सीमा में रहकर सबको साथ लेकर चलने की सीख देने वाला माध्यम है। सत्ता संघर्ष के लिए धर्म का सहारा पहले भी लिया जाता रहा है, अब भी लिया जा रहा है और आगे भी यह प्रयास जारी रहेगा। लेकिन बेहतर होगा, हमलोग धर्म की आड़ लेकर राजनीति करने वालों का असली चेहरा समझने की चेष्टा करें। उन्हें बेनकाब करें। किसी भी सरकार का काम धर्म का प्रचार करना नहीं बल्कि आम जन का जीवन स्तर सुधारना होता है। जनता के लिए मूलभूत सुविधाएं मुहैया करवाना होता है। जनता के लिए रोटी, कपड़ा, आवास, शिक्षा, चिकित्सा व रोजगार आदि की व्यवस्था करना होता है।
धर्म हमें बेहतर इंसान बनाता है। गर, हम धर्म का मर्म समझ पाएं तो। हां, राजनीति करने वाले जब धर्म की व्याख्या करने लग जाएं और जनता उसे ही धर्म का वास्तविक सच समझ ले तो फिर धर्म ‘उन्माद’ बन जाता है। सनद रहे, धार्मिक उन्माद सबसे खतरनाक होता है। पड़ोसी देश प्रमाण है। धर्म का व्यापार करने वालों को पहचानिए। उन्हें मुंहतोड़ जवाब दीजिए। ताकि आपके पास आकर कोई यह कहने का दुःस्साहस न करे कि आइए…धर्म-धर्म खेलते हैं!