देशी कपास से बचेगी गांवों की अर्थव्यवस्था, जानिए….कैसे ?

ओम पारीक.
अभी तीन दशक पहले की बात है, जब राजस्थान, हरियाणा और पंजाब के खेतों में देशी कपास की लहरें लहराती थीं। कई जगह इसकी खाकी किस्म बोई जाती थी, जो हमारे देसी स्वभाव और धरती की नमी से जुड़ी हुई थी। उस समय खेतों में कपास उगती थी, तो घरों में चरखे की घर्र-घर्र और करघे की खटर-पटर गूंजती थी। दरी, खेस, चद्दर, रजाई, तकिया, सब कुछ देशी कपास से ही बनता था। यह न केवल वस्त्र का उत्पादन था, बल्कि गांव की रोज़ी-रोटी और अस्मिता का भी हिस्सा था।
देशी कपास के बिनौले से पशुओं को चारा मिलता, खासकर भैंस इसे चाव से खाती थी। इस कारण दूध में न केवल फेट बढ़ती थी, बल्कि स्वाद और पोषकता भी बनी रहती थी। कपास की खेती में कीट नियंत्रण का झंझट नहीं था, खेतों में ‘जहर’ नहीं छिड़कना पड़ता था, और न हवा में जहरीलापन घुलता था। पर धीरे-धीरे नरमा के मोह में हमने अपनी धरती की असली पहचान ही खो दी।


नरमे की खेती आई, तो साथ आए कीटनाशक, खर्च, और जहरीले अवशेष। कपास की तरह नरमे से न तो वही गर्माहट मिली, न वही सेहत। किसान सोचता रहा कि नरमे से आमद बढ़ी या नहीं, लेकिन सच्चाई यही है, धरती, दूध और देह, तीनों का नुकसान हुआ। आज हालत यह है कि सर्दियों में रजाई भरवाने के लिए हमें नरमे की रूई लेनी पड़ती है, जिसमें ना ऊष्मता है, ना अपनापन। दीपक की बाती तक नरमे की बनानी पड़ती है, और वह भी जल्दी बुझ जाती है।


बाज़ार अब सिंथेटिक रुई से भरा पड़ा है, जो कपास की जगह ले रही है, पर वह मन की गरमी नहीं दे पाती। पहले जब राजगढ़-चूरू की बारानी भूमि पर देशी कपास बोई जाती थी, तो वहां के सूती कपड़े और बिस्तर आत्मसंतोष देते थे। वे मुलायम होते, देह को सुकून देते और ठंडी रातों में गर्मी भर देते। आज वही खेस सिंथेटिक धागे में अकड़ लिए हैं, न कोमलता रही, न परंपरा की खुशबू।


अब समय है कि किसान फिर से अपनी मिट्टी की ओर लौटे। देशी कपास केवल फसल नहीं है, यह आर्गेनिक जीवन प्रणाली का हिस्सा है। इससे हमारी मिट्टी बचेगी, पानी का संतुलन रहेगा, पशुधन को शुद्ध चारा मिलेगा और गांव की अर्थव्यवस्था मजबूत होगी। कपास हमारी पूजा, परंपरा और पहनावे का अभिन्न अंग रही है कृ दीपक की बाती से लेकर देवी की पोशाक तक। इसे बचाना मतलब अपनी संस्कृति को बचाना है।


राजस्थान की यह धरती धोरां री, अगर आज फिर देशी कपास से ढक जाए, तो मानो प्रकृति भी मुस्करा उठे। खेतों में जहर की जगह खुशबू लौट आए, और रजाई में फिर वही देसी ऊष्मा आ जाए, तो समझो किसान ने अपनी धरती मां से न्याय कर लिया।
हमारी संस्कृति कहती है, ‘ज्यो धरती ने सोंभळे, वोई खुद सोंभळायो।’ देशी कपास इसी सोंभाल का प्रतीक है, देसीपन, सेहत और संवेदना का। अब बस किसान को यह समझना होगा कि असली हरियाली वही है, जो धरती को जहर नहीं, जीवन देती है।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *