ओम पारीक.
शुद्ध पानी के मायने समझे बगैर नहर का दूर्षित पानी पीते हम लोग। आज हम ऐसे दोराहे पर खड़े हैं जहां बढ़ती आबादी के बोझ और घटते संसाधनों के संताप में जी रहे हैं। यानी अपने आप को ढो भी रहे हैं और कोस भी रहे हैं। जीवन की मूलभूत जरूरत पानी है। पश्चिमी राजस्थान में तो पानी सबसे बड़ा दिवास्वप्न रहा। मगर हमने इस सम्बन्ध में जितना सोचा उससे भी ज्यादा पानी के साथ जबरजिन्हा किया।
पानी के लिए हमने जितनी बड़ी योजनाओं में संसाधन झोंके, उतनी ही छोटी योजनाओं को हमने दरकिनार भी किया। नहरों का खुला पानी देख कर हम भूल गए पानी की जरूरतें इतनी बढ़ गई कि जो पानी इन नहरों का मिल रहा था उसके वितरण और व्यवस्था के बारे में सोचने की जरूरत भी भूल गए। नहरी पानी नहर के संसाधन से दोगुनी रफ्तार से बांट दिया गया। चूंकि आबादी के दबाव का असर नहर जहां से निकलती हैं वहां भी बढ़ा तो वे नदियां भी सिकुड़ गई। नई तकनीकी खेती बड़े शहरों के प्रसार ने नदियों के पानी को अपनी जरूरत बना कर बदले में उन शहरों का जल-मल निकासी का पानी नदी-नहरों में डालने लगे। जिसका असर हम अपनी सभी नहरों के पानी की क्वालिटी में देख रहे हैं। पानी का झगड़ा पानी के उद्गम स्थल पर भी है और हमारे वितरण स्थल पर भी।
मगर सवाल यह है हम आज कहां खड़े हैं? दो माह की नहरबन्दी से पूरा पश्चिमी राजस्थान बिलबिला उठा। इस संदर्भ में सोचने वाली बात यही है कि हमारे अपने पुराने जल स्रोत संसाधन कहां गए? जाहिर है, हमने उनको नष्ट करने में कोई कसर नहीं रखी। मैं समझता हूं, गांव, बस्ती व शहर में नहर आने से पहले जल उपक्रम की अपनी व्यवस्था थी। अभाव जरूर रहा होगा। मगर पानी तो मनुष्य, पशु व वन्य जीव को भी मिलता था। वे संसाधन जिसमें हम पानी भंडारण व्यवस्था बनाए रखने के लिए बहुत मेहनत करते। तालाब, कुंड, कुएं बनवाते। पानी को बेकार न बहाया जाए, इसके लिए गीनानी जैसी व्यवस्था करते मगर। आजादी के आजाद खयालों में बड़ी जल योजनाओं में उन सभी संसाधनों को हमने मिट्टी में मिला दिया।
आज की तारीख में किसी गांव में कुएं की उपयोगिता नहीं। जोहड कब्जे कर लिए गए। कुंडांे को ध्वस्त कर दिया गया। बस, नहर का पानी जिस पर सभी आश्रित हो चले। अक्सर देखता हूं कि गांवों व शहरों में बरसात के दिनों बाढ़ के हालात बन जाते है। बरसात के पानी की जरूरत के मुताबिक संसाधन हमने रहने ही नहीं दिए फिर अपने को डूबने से कौन बचाए। रही बात पानी का तो जब हमने अर्थ भी नहीं समझा तो उद्देश्य कहां समझ आए ?
आज विकास के लिहाज से अधिकांश मकान पक्के हैं। अगर बारिश के पानी को पीने के पानी की उपयोगिता में लाएं तो 10-15 फुट गहरा कुंड आपको बारह मास तक स्वच्छ जल के दो घड़े पानी दे सकता है जो आपके पीने का सबसे उत्तम पानी होगा। ना कि नहर में आते सीवरेज वाला पानी। कुंड निर्माण के पैसे दो साल में जाहिर तौर पर आपके स्वस्थ खर्चों में कमी से निकल जाएगा। हर घर, खेत व ढाणी को कम से कम पीने के पानी की जुगत प्रकृति प्रदत्त पानी से करनी होगी। आज नहीं तो कल आप करेंगे जरूर।
पानी की जरूरत इतनी ज्यादा बढ़ चुकी हैं। वाश बेसिन, स्नान घर, शौचालय, कपड़े धोने, कूलरों व गाडियां धोने से लेकर अनेक काम जो पानी पर निर्भर हो चुके हैं। सवाल यह है कि आखिर इतना पानी आएगा कहां से ? निर्माण क्षेत्र का पानी भी हमारे जल संसाधन से जुटाया जाता है तो कृषि क्षेत्र के पानी दोहन की कहानी तो जग जाहिर है।
पानी पराया साधन है। बारिश, नदी व नाले कुछ नहीं है। ना ही हमारा भूमिगत पानी हमें कोई राहत देने वाला। इसलिए पानी भविष्य के लिहाज से बहुत बड़ी समस्या बनने जा रहा है। इसलिए पानी के लिए संसाधन तैयार करने का यही समय है। अगर हम चूक गए तो हमारी अपनी सभ्यता को ग्रहण लगते देर नहीं लगेगी।