शंकर सोनी.
‘हम लोगों’ ने 26 जनवरी 1950 को संविधान को अंगीकार करते हुए भारत में लोकतंत्रात्मक गणराज्य घोषित किया हुआ है। हमारे संविधान के अनुसार गणतंत्र का अर्थ देश की आम जनता की तरफ से निर्वाचित जनप्रतिनिधियों द्वारा चलाए जानेवाली शासन व्यवस्था से है।
आज संविधान को अंगीकार किए हुए 74 वर्ष हो रहे हैं। गणतंत्र दिवस पर हमें इस विषय पर गंभीरता से चिंतन और मंथन करना चाहे तो गणतांत्रिक लेकर हमारे समक्ष आगे वर्णित कुछ यक्ष प्रश्न खड़े हैं कि क्या वास्तविक रूप में भारतीय आम नागरिक की इच्छाओं के अनुसार प्रशासन चलाया जा रहा है? क्या हमारी निर्वाचित सरकारें आम नागरिकों की अधिकारों के प्रति संवेदनशीलता से अपने उत्तरदायित्व को निभा रही है? क्या भारतीय आम नागरिकों को इस बात का रत्तीभर भी ज्ञान है कि संविधान में 42 वें संशोधन करते हुए प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने भारतीय संविधान के अनुच्छेद 74 और 75 के द्वारा हमारे राष्ट्रपति से उनकी संवैधानिक शक्तियों को छीन लिया गया है? क्या भारतीय जनता को इस बात का अहसास है कि माह दिसंबर 2023 में संसद द्वारा एक्ट पारित कर भारतीय निर्वाचन आयोग में मुख्य निर्वाचन आयुक्त की नियुक्ति में अब मुख्य भूमिका राष्ट्रपति की नहीं रहेगी अपितु प्रधानमंत्री की होगी?
क्या भारतीय जनता को इस बात का ज्ञान है कि भारत सरकार पर वर्ष 2023-24 तक 173 लाख करोड़ रुपए का कर्जा है? जो हो हमारी जीडीपी का 81 प्रतिशत है? और सरकार इन परिस्थितियों में भी 81.35 करोड़ लोगों को साल भर मुफ्त राशन देने और कई प्रकार की रेवड़ियां कैसे बांट सकेगी? आजादी के 77 वर्ष होने के बाद भी क्या भारतीय जनता की ईच्छा से गरीबी, बेरोजगारी, कुपोषण की स्तिथि बनी हुई है? क्या जनतंत्र अक्सर सड़कों पर आक्रोशित होकर जिन व्यवस्थाओं के खिलाफ आंदोलन करता है वो व्यवस्थाएं जनतंत्र द्वारा स्थापित ही है?
निसंदेह इन सभी सातों प्रश्नों का उत्तर होगा ‘नहीं’। आम जनता को इन सभी संवैधानिक तोड़ फोड़ का ज्ञान नहीं है। निश्चित रूप से यह स्तिथि हमारे गणतंत्र पर सवाल खड़ा करती है। आम आदमी को मतदान की महत्ता का ज्ञान नहीं हैं। हमारे द्वारा निर्वाचित प्रतिनिधि हमारे अधिकारों, हमारी समस्याओं के प्रति किसी भी रूप में जिमेवार नहीं होते फिर भी हम बार बार उन्हें चुनते हैं।
अब इस समस्या के निराकरण पर विचार करते हैं। एक काम मोदी सरकार द्वारा 2014 से ठीक शुरू किया गया है कि आम आदमी को संविधान की प्रस्तावना और संवैधानिक नागरिक कर्तव्यों को पढ़ाना शुरू किया है। पर यह अपर्याप्त है नागरिक बोध के लिए आम आदमी को उसके संवैधानिक अधिकारों का ज्ञान कराया जाना जरूरी है। बीमार गणतंत्र के कारण आज विपक्ष नहीं है और विपक्ष के अभाव में जनतंत जिंदा नहीं रह सकता। भारतीय संवैधानिक व्यवस्था में सर्वाधिकारवाद की संभावनाएं अंतर्निहित है। संसदात्मक शासन प्रणाली का सर्वाधिकारवाद के रूप में उपयोग, मोदी सरकार की देन मानी जाएगी जो राजनीति शास्त्र का नया विषय बनेगा।
-लेखक नागरिक सुरक्षा मंच के संस्थापक अध्यक्ष व वरिष्ठ अधिवक्ता हैं