

डॉ. एमपी शर्मा.
सनातन धर्म की महानता ही इसकी विविधता में है। यह कोई एक किताब, एक धर्मगुरु, देवदूत या एक विधान तक सीमित नहीं है। इसमें सगुण और निर्गुण, दोनों धाराएँ समानांतर रूप से प्रवाहित होती रही हैं। एक ओर भक्त सूरदास, तुलसीदास और मीरा हैं, जो भगवान को सगुण रूप में श्रीकृष्ण या राम के रूप में भजते हैं। दूसरी ओर कबीर, रैदास और दादू जैसे संत हैं, जो निर्गुण ईश्वर की बात करते हैं दृ ऐसा परम तत्व जो नाम, रूप और आकार से परे है।
सगुण भक्ति में ईश्वर को किसी विशिष्ट रूप में देखा जाता है। जैसे शिव, विष्णु, दुर्गा, हनुमान आदि। पूजा, अर्चना, व्रत, तीर्थ यात्रा आदि इसके प्रमुख अंग हैं। यह भक्ति हमें भावनात्मक रूप से जोड़ती है। हम अपने आराध्य को देख सकते हैं, उनसे बात कर सकते हैं, उनसे उम्मीद कर सकते हैं। उदाहरण के लिए, राजस्थान के लाखों श्रद्धालु सावन में काँवड़ लेकर भोलेनाथ के दर्शन को निकलते हैं। गोगाजी, रामदेवजी, भैरव बाबा, ये सब सगुण भक्ति के जीवंत प्रतीक हैं।
दूसरी ओर निर्गुण भक्ति कहती है कि ईश्वर न मंदिर में है, न मस्जिद में। वह तेरे ही भीतर है। कबीर कहते हैं,
मोको कहां ढूंढे रे बंदे, मैं तो तेरे पास में
ना मैं मंदिर, ना मैं मस्जिद, ना काबे कैलास में
यह भक्ति भीतर की ओर जाने का आह्वान करती है। ध्यान, आत्मनिरीक्षण और आत्मसाक्षात्कार की ओर। राजस्थान के लोक भजनों में कबीर के दोहे आज भी गूंजते हैं-‘तेरे घट में बसें भगवान, मंदिर में क्या ढूंढती फिरे?’
आज का आम जन कहीं न कहीं एक द्वंद से जूझता है कि किसे मानें और किसे न मानें। एक ओर उसे कहा जाता है कि मंदिर जाओ, पूजा करो, व्रत रखो। दूसरी ओर संत कहते हैं कि भगवान तो तेरे भीतर है, तू स्वयं को जान। तो क्या ये विरोधाभासी हैं? नहीं। वास्तव में ये एक ही सत्य के दो पहलू हैं।
सनातन धर्म हमें यह स्वतंत्रता देता है कि हम अपने मार्ग का चयन करें। अगर कोई मूर्ति की पूजा से शांति पाता है, तो वह गलत नहीं है। अगर कोई आत्मा के ध्यान में ईश्वर को खोजता है, तो वह भी सही है। असल बात यह है कि सगुण भक्ति आरंभिक सीढ़ी है, जो अंततः हमें निर्गुण की ओर ले जाती है। जैसे बच्चे को पहले चित्रों से पढ़ाया जाता है, बाद में वह शब्दों को समझता है। वैसे ही, ईश्वर को पहले हम किसी रूप में देखते हैं, फिर धीरे-धीरे समझते हैं कि वह तो हर रूप में और रूप के पार है। उदाहरणस्वरूप, मीरा तो श्रीकृष्ण को सगुण रूप में मानती थीं, पर उनका प्रेम इतना गहरा था कि वह ‘स्वयं’ को ही खो बैठीं, यह निर्गुण की चरम अवस्था है। कबीर ने कभी मूर्तियों को नहीं पूजा, पर उनका जीवन प्रेम, करुणा और साधना से भरपूर था, वही तो सच्ची पूजा है।
अब सवाल उठता है कि आमजन को क्या करना चाहिए? सीधा सा जवाब है। आप मंदिर जाइए, दीप जलाइए, भजन गाइए, पर साथ ही अपने भीतर भी झांकिए। सच्चा धर्म वह है जो हृदय को निर्मल करे, व्यवहार को शांत और प्रेममय बनाए। न किसी की भक्ति को हीन समझें, न अपनी श्रेष्ठ मानें। सनातन धर्म कोई बंधन नहीं, यह मुक्ति का मार्ग है। सगुण और निर्गुण, दोनों धाराएँ एक ही समुद्र की लहरें हैं। जो जैसा मार्ग चुने, उसका सम्मान करें। कबीर की वाणी आज भी हमें राह दिखाती है
‘पानी में मीन प्यासी रे
मोहे सुन-सुन आवे हांसी रे’
हम सब उसी परमात्मा की खोज में हैं, जो हमारे भीतर ही है, बस, बाहर से भीतर की ओर रुख करना है।
-लेखक सीनियर सर्जन, सामाजिक चिंतक और आईएमए राजस्थान के प्रदेशाध्यक्ष हैं

