सतविन्दर सिंह और गुलाब सिंह ने बदला खेती का तरीका, जानिए…. क्यों ?

image description

ग्राम सेतु ब्यूरो.
हनुमानगढ़ जिला मुख्यालय के निकट गांव जंडावाली के आसपास खेतों में सब्जियों के पौधे आपको आकर्षित करेंगे। तरह-तरह की सब्जियों के पौधे जब हवा के झोंकों के साथ इठलाते हैं तो युवा किसान सतविन्दर सिंह और गुलाब सिंह के चेहरे पर संतोष का भाव उभर आता है। सतविन्दर सिंह और गुलाब सिंह आपस में भाई हैं। वे करीब 40 बीघा जमीन में सिर्फ सब्जियों की खेती करते हैं। भाखड़ा नहर प्रणाली क्षेत्र में सब्जियों की खेती की तरफ किसानों का बढ़ता रुझान हैरान करता है। सतविन्दर सिंह ‘ग्राम सेतु’ से कहते हैं, ‘पापा सरदार भूपेंद्र सिंहजी ने करीब दो दशक पहले सब्जियों की खेती शुरू की थी। वे पांच-दस बीघे में सब्जियां उगाते लेकिन उचित कीमत नहीं मिलती थी। इसलिए उनका रुझान कम होता गया। बाद में परंपरागत खेती की तरफ मुड़ गए। लेकिन इसी दौरान नरमे की फसल में गुलाबी सुंडी आई और फसल चौपट हो गई। इसके बाद परंपरागत खेती से मन भर गया। तीन साल पहले हमने 50 बीघा जमीन को सब्जियों की खेती के लिए तैयार किया। इसमें गाजर और तरबूज लगाया। वाहे गुरुजी की मेहरबानी हुई। करीब 50-60 हजार रुपए प्रति बीघा गाजर और करीब 30 हजार रुपए प्रति बीघा तरबूज से आय हुई।’


प्रगतिशील किसान गुलाब सिंह ‘ग्राम सेतु’ से कहते हैं, ‘सब्जियों की खेती का एक फायदा यह भी है कि परंपरागत खेती से आप साल में दो फसलें ले सकते हैं यानी छमाही के हिसाब से लेकिन सब्जियों की खेती से आप साल में तीन फसलें ले सकते हैं। मसलन, हमलोग गाजर की बिजाई सितंबर में करते हैं और नवंबर आखिर सप्ताह और दिसंबर तक कटाई कर लेते हैं। यानी चार माह में एक फसल कम्प्लीट। इसके बाद फरवरी-मार्च में तरबूज की खेती शुरू करते हैं और मई-जून तक तैयार। बाद में जून के दौरान ककड़ी व ग्वार आदि लगाते हैं। इस तरह हमारा कारोबार बढ़ रहा है।’
दिलचस्प बात है, हनुमानगढ़ के गाजर और तरबूज की डिमांड आसपास के क्षेत्र तक नहीं बल्कि पंजाब और हरियाणा के नजदीकी मंडियों में भी है।
सतविन्दर सिंह कहते हैं, ‘पहले मार्केट का आइडिया नहीं था। इसलिए उचित भाव नहीं मिलने पर गाजर और तरबूज गोशालाओं में भिजवा देते थे। बाद में हमने पंजाब और हरियाणा की नजदीकी मंडियों तक पहुंचाने की व्यवस्था की। आज उन क्षेत्रों में अच्छी डिमांड है।’ गुलाब सिंह के मुताबिक, पंजाब में यूरिया और डीएपी की बंपर खपत है जबकि अपने यहां नाम मात्र। मसलन, पंजाब में प्रति बीघा 5 से 8 बोरी यूरिया की खपत है तो हम यहां पर महज 15 से 20 किलो प्रति बीघा उपयोग करते हैं। इसलिए हमारे उत्पाद में पौष्टिकता है। खाने वालों को कोई दिक्कत नहीं।’
सतविन्दर सिंह बताते हैं कि अब खेती के मायने बदल रहे हैं। मिट्टी की उर्वरकता बनाए रखने के लिए आपको फसलों का फलसफा समझने और बदलने की जरूरत है। हमारा बदलाव सार्थक है और लाभकारी भी। यही वजह है कि देखादेखी बाकी लोग भी अब परंपरागत खेती के बजाय मॉडर्न खेती पद्धति की तरफ आकर्षित हो रहे हैं।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *