शंकर सोनी.
लोकसभा चुनाव की सरगर्मियों के बीच कांग्रेस आशंका जता रही है कि अगर भाजपा ने 400 का आंकड़ा पार किया तो वह संविधान को खत्म कर देगी। रोचक बात है कि भाजपा इन आरोपों से सहमी हुई है। तभी तो प्रधानमंत्री और गृह मंत्री बार-बार जनता को यह विश्वास दिलाने का प्रयास कर रहे कि आज अगर खुद अंबेडकर आ जाएं तो भी संविधान खत्म करना तो दूर बदल नहीं सकते। आइए, हम आम भारतीय नागरिक होने के नाते संविधान पर चर्चा करते हैं।
सबसे पहले आपको यह समझना होगा कि हमारे संविधान की रचना करने वालों की भावनात्मक सोच क्या थी। तत्कालीन कांग्रेस की अंदरूनी व्यवस्था से अंदाज लगाते हुए बाबा साहब डॉ. भीमराव अम्बेडकर ने 25 नवंबर 1949 को संविधान सभा दिए गए अपने भाषण में व्यक्तिपूजा की भावना, घोर सामाजिक असमानता और जातीय विभेद के कारण भारतीय लोकतंत्र के भावी कुछ ख़तरों की ओर संकेत किया था। उन्हें भय था कि कहीं भारत में तानाशाही व्यवस्था न आ जाए। उसी समय संविधान सभा के अध्यक्ष डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने कहा था कि जो लोग चुनकर आएंगे, वे योग्य, चरित्रवान और ईमानदार हुए तो वे दोषपूर्ण संविधान को भी सर्वाेत्तम बना देंगे। लेकिन यदि उनमें गुणों का अभाव हुआ तो यह संविधान देश की कोई मदद नहीं कर पाएगा। इन्हीं कारणों से हमारे संविधान में दलगत राजनीति और राजनीतिक दलों का जिक्र ही नहीं है।
संविधान के संशोधनों ने साबित कर दिया कि बाबा साहब की शंकाएं सही थी। संविधान निर्माताओं द्वारा इंदिरा गांधी और नरेंद्र मोदी जैसे प्रधानमंत्रियों के होने की परिकल्पना नहीं की गई थी वरना संविधान को इतना लचीला नहीं रखते।
हमारे संविधान में राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री के गरिमामयी, ईमानदार संवेदनशील ,जनतांत्रिक व्यक्तित्व के होने कल्पना की गई थी। हमारे संविधान में जनतंत्र के तीन मुख्य अंग व्यवस्थापिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका को रखा और तीनों के अधिकार क्षेत्र को निर्धारित किया। संविधान में तीनों अंगों में शक्ति संतुलन बनाए रखने के लिए विशेष प्रावधान किए गए। अब हम चर्चा करेंगे राजनेताओं ने हमारी मूल संवैधानिक व्यवस्था को कैसे कुचला। हमारे संविधान के अनुच्छेद 53 के अनुसार देश की कार्यपालिका के समस्त अधिकार राष्ट्रपति में निहित होंगे। संविधान के मूल अनुच्छेद 74 के अनुसार राष्ट्रपति की सहायता और परामर्श के लिए प्रधानमंत्री के नेतृत्व में मंत्र मंत्रिमंडल होगा। अनुच्छेद 75 में यह व्यवस्था की गई है कि राष्ट्रपति प्रधानमंत्री को नियुक्त करेंगेऔर प्रधानमंत्री की राय से अन्य मंत्री नियुक्त करेगें।
अनुच्छेद 78 में प्रधानमंत्री को यह दायित्व सौंपा गया कि वह मंत्रिमंडल के क्रियाकलापों से राष्ट्रपति को अवगत करवाएंगे। संविधान में ऐसा कहीं नहीं लिखा गया है कि राष्ट्रपति संसद में से किसी व्यक्ति को प्रधानमंत्री और मंत्री नियुक्त करेंगे। प्रधानमन्त्री, लोकसभा में बहुमत-धारी राजनैतिक दल का नेता ही होगा यह संवैधानिक प्रावधान नहीं है अपितु प्रथा है। आपातकाल में इंदिरा गांधी द्वारा संविधान में संशोधन करके सबसे पहले हमारी कार्यपालिका के अध्यक्ष और राष्ट्रपति की शक्तियों को छीन कर उन्हे एक रबर की मोहर के रूप में परिवर्तित किया गया।
संविधान में 42वें संशोधन से पहले के राष्ट्रपति प्रधानमंत्री और मंत्रिमंडल की राय मानने के लिए बाध्य नहीं थे। राष्ट्रपति को अपने विवेक से निर्णय लेने की आधिकारिक थी। इंदिरा गांधी ने प्रधान मंत्री के शक्तिवर्धन के लिए इसे एक खतरे के रूप में लिया और उक्त संशोधन करके राष्ट्रपति को शक्तिहीन बना दिया।
आपातकाल के पश्चात जनता पार्टी की सरकार बनी जिसने राष्ट्रपति की शक्तियों को पुनःस्थपित नहीं किया अलबत्ता अनुच्छेद 74 में इतना संशोधन किया कि प्रधानमंत्री मंत्री राष्ट्रपति को पुनः राय देते है तो इसे मानने हेतु राष्ट्रपति बाध्य होंगे। जनता पार्टी सरकार के समय हमारे संविधान के अनुच्छेद 19 (एफ) हटा कर नागरिकों के संपति के अधिकार को छीन लिया। सर्वाेच्च न्यायालय की 13 जजों की संवैधानिक पीठ ने केसवानंद भारती के मामले में दिनांक 13 अप्रैल 1971 निर्णय देकर संविधान के मूल ढांचा को परिभाषित करते हुए सिद्धांत प्रतिपादित किया कि संसद संविधान के मूल ढांचा को परिवर्तित नहीं कर सकती। मिनर्वा मिल के मामले में सर्वाेच्च न्यायालय ने केशवानंद भारती के निर्णय को आधार मानते हुए 44वें संशोधन द्वारा संविधान में किए गए संशोधन कुछ को तो असंवेधानिक घोषित कर दिया परंतु 42 में संशोधन को असंवैधानिक घोषित नहीं किया।
हाल ही में निर्वाचन आयोग की नियुक्ति का अधिकार प्रधानमंत्री के नियंत्रण में कर लिया गया है। सर्वाेच्च न्यायालय संविधान और जनतंत्र का संरक्षण है परंतु ऐसा महसूस होता है कि संरक्षक भी संविधान और भारतीय जनतंत्र की रक्षा करने चूक कर रहा है। सर्वाेच्च न्यायालय और उच्च न्यायालय में जजों की नियुक्ति के संबंध में सर्वाेच्च न्यायालय द्वारा स्थापित कॉलेजियम सिस्टम को समाप्त करने के लिए मोदी सरकार ने 2014 में संविधान में 99वें संशोधन कर राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग लाया गया जिसे सन 2015 में सर्वाेच्च न्यायालय ने अवैध घोषित कर दिया था। अब देखते हैं सर्वाेच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों में जजों की नियुक्ति का अधिकार सर्वाेच्च न्यायालय बचा सकेगा या नहीं। आज समय की मांग है कि सर्वाेच्च न्यायालय केशवानंद भारती के निर्णय को आधार मान कर तुरंत प्रभाव से संविधान में किए गए समस्त संशोधनों पर पुनरावलोकन करें।
-लेखक नागरिक सुरक्षा मंच के संस्थापक अध्यक्ष व पेशे से अधिवक्ता हैं