ग्रामीण विकास की सिर्फ बातें होती हैं। नियोजित विकास को लेकर जनप्रतिनिधि गंभीरता नहीं दिखाते। जिस तरह गांवों के विकास के लिए बजट निर्धारित किए जाते हैं, अगर कुछ और ठोस प्रयास किए जाएं तो आने वाले समय में ग्रामीण विकास के पंख लग जाएंगे।
इंजीनियर ओम बिश्नोई.
गांव की बात सभी करते हैं। गांव के आर्थिक हालात पर बात नहीं होती। आइए, हम गांवों के बीच आर्थिक विषमताओं पर एक नजर डालते हैं। तीन कृषि कानूनों को रद्द करना और फसलों की एम.एस.पी. गारंटी के लिये एक प्रभावी कानून पर हम आप बहुत कुछ पढ चुके हैं, नेताओं के बयानों सहित। देश के मेट्रो शहरों और दूसरे शहरी कस्बों कि तुलना अगर भारत के 6 लाख 28 हजार 221 गांवो से करें और आबादी के हिसाब से देखें तो करीब 90 करोड लोग गांवों में रह कर गुजर बसर करते हैं, बाकी शहरों और कस्बों में। बस, आप किसी भी गांव चले जाइए, अधिकांश आज भी शिक्षा, स्वास्थ्य, पानी, बिजली व रोजगार तक की मूलभूत सुविधाओं से भी वंचित हैं शहरों की तुलना में। ऐसा नहीं शहरों की हालात सब बढिया है। बहुत सी समस्याओं का अंबार वहां भी है, परन्तु गांवों के हालात शहरों के मुकाबले और भी विकट है।
भारत के बारे में कहावत है कि यहां दस कोस पर भाषा बदल जाती है और भूगोल भी। यह बहुत हद तक सच भी है। मसला चाहे भाषा का हो, धर्मों का हो, पंथों का हो, मतों का हो, रहन-सहन का हो, सिंचाई के संसाधनों का हो या फिर मिट्टी के प्रकार का हो, जिसमें फसले पैदा होती हैं, साफ-साफ देखा जा सकता है। यही इस महान देश की खूबसूरती है। दुनियाभर में इसी खूबसूरती से यह देश अपनी एक विशिष्ट पहचान भी रखता है। अनेकता में एकता समेटे अपनी ही चाल से चल रहा है भारत। जिसकी विविधतापूर्ण छटाओं से आप अछूते नहीं रह सकते हैं, अगर आप भारत की यात्रा पर कभी निकले हैं तो।
गांवों और शहरों के बीच रोजगार, शिक्षा, स्वास्थ्य के हालातों की खाई लगातार दशकों से बढती ही जा रही है जिसे और विकट बना रही हैं हमारी नीतियां। जो मूलतः केंद्रीय हैं। चाहे वो सेंटर के लेवल बनती हों या राज्य के लेवल पर। ऊपर से दुर्भाग्य यह गांवों की इन नीतियों को बनाने वाले कर्ता-धर्ता या नीति निर्माता देश के गांव देहात से कटे हुये हैं। चाहे गांवों का लोक व्यवहार हो, चाहे उनकी जरूरतें हो। कोढ में खाज ये भी कि गांवों और शहरों के बीच इन विषमताओं पर कोई बडी रिसर्च भी नहीं होती जो रोग की नब्ज ठीक से पकड़ पाए।
फिलहाल तो क्रूर पूंजीवादी नीतियों ने इतना जकड लिया है देश को, जिसकी परिणति ही कृषि आंदोलन बना है, इसमें अगर हम मनोविज्ञान के तरीके देखें तो पाएंगे कि गांव का चाहे वो किसान हो पढने वाला ग्रामीण युवा हो, शहर और गांवो के बीच इन विषमताओं को देखकर भीतर ही भीतर उबल रहा है, इसे मैंने तो देहात भ्रमण करते अक्सर महसूस किया है कोई और भी थोडा भ्रमण कर ,बातचीत कर गांवो के लोगों से महसूस कर सकता है।
गांवो और शहरों के बीच इन विषमताओं का इलाज, जाति-धर्म की राजनीति से नहीं किया जा सकता, रोग बढता ही जायेगा हां कुछ समय के लिये इस तरह कि राजनीति राजनैतिक दलों के लिये चाहे कितनी भी मुफीद क्यों नां हो बस वो समस्या को आगे ही धकेलेगी, उसे हल नहीं करेगी।
भारत बेहद बडी जनसंख्या के साथ है जिसका करीब 90 करोड़ देहात में है और देश की बडी आबादी युवाओं की है जो आज भी गांव या देहात में रहती है। तो उनके लिये कृषि के इर्द-गिर्द रोजगार होने चाहिए। देहात के आम लोगों के लिए बेहतर सुलभ, सस्ता स्वास्थ्य सेवाएं हांे, बेहतर शिक्षा व बेहतर कृषि आधारित उद्योग हों ,चाहे सहकारी कुटीर और लघु उद्योग हों जिनमें गांवों के ही लोगों को प्राथमिकता हो, सहकारिता के तरीके या सेवाओं के रूप में।
इन सब चीजों के लिए अब बेहतर समय है, देश और नीति निर्माता ग्रामीण अर्थ-व्यवस्था को केन्द्र में रखे। राज्य और केंद्र साफ-साफ शहरी बजट से अलग ग्रामीण बजट बनाए, नीतिगत तरीके से। ग्रमीण बजट के खर्च के लिए गांव देहात की जरूरतों को केंन्द्र में रख कर खर्च किया जाए। साथ ही ग्राम संभाओ को जागरूक और मजबूत किया जाए। कोई भी देश अपने लोगों की खुशहाली से ही महान बनता है, भाषणों से नहीं। कुल 70 प्रतिशत भारत को खुशहाली से काट कर खुशहाल भारत का सपना भी नहीं लिया जा सकता है। समय रहते देश नही चेता तो ‘साढे साती’ आगे निश्चित ही बढेगी जो चाहे तरीका बनेगा,जो किसी भी हाल में देश के लिए लाभदायक नहीं होगी। इन्ही बातों को किसी सयानें पंजाबी कलमकार ने कहा है ‘चल मितरा हूंण पिंड मुड चलिये, लंबिया होईयां उडिकां’। बेशक, इसके अर्थ गहरे हैं, गर कोई समझे तो।