पद्मेश सिहाग.


भरतपुर के राजा बदन सिंह व महारानी देवकी के घर 13 फरवरी, 1707 को एक बालक का जन्म हुआ। जो बाद में वीर शिरोमणि महाराजा सूरजमल के नाम से प्रसिद्ध हुआ। राजा बदन सिंह के इस बालक का बदन सात फुट लम्बा व 110 किलो का था। यह बालक वीरता, धीरता, गंभीरता, उदारता, सतर्कता, कुशल प्रशासक, दूरदर्शी, कूटनीतिक और राजमर्मज्ञता का सुखद संगम सुशोभित करते हुए वीर शिरोमणि महाराजा सूरजमल के रूप में प्रसिद्ध हुआ। ये गांव सिनसिनी के रहने वाले थे इसलिए सिनसिनवार लिखने लगे और कालांतर में यह सिनसिनवार गौत्र बन गया, जबकि यह परिवार मूल रूप से बाना गौत्र के जाट थे।

इनके पिता ने इन्हें वैर की जागीर सौंपी थी, इनके कुशल नेतृत्व के कारण इनके पिता ने 25 वर्ष की आयु में सन् 1732 में सोगर गांव के खेमकरण सोगरिया की फतहगढ़ी पर हमला करने के लिए भेजा, जिस पर विजय प्राप्त करने के बाद 1733 में वहां किले का निर्माण शुरू कर दिया भरतपुर स्थित यह किला लोहगढ़ किला के नाम से जाना जाता है। यह देश का एकमात्र किला है जो विभिन्न आक्रमणों के बावजूद हमेशा अजेय व अभेद रहा। बदन सिंह और सूरजमल यहां आकर 1753 में आकर रहने लगे। भरतपुर के किले का निर्माण कार्य शुरू होने के कुछ समय बाद बदन सिंह की आंखों की ज्योति चली गई, जिसके कारण उन्होंने राजकार्य अपने योग्य विश्वास पात्र पुत्र सूरजमल को सौंप दिया। वैसे बदन सिंह के समय भी शासन की असली बागडोर सूरजमल के हाथ में रही। मुगलों, मराठों व राजपूत से गठबंधन का शिकार हुए बिना ही सूरजमल ने अपनी धाक स्थापित की। घनघोर संकटों की स्थिति में भी राजनीतिक व सैन्य दृष्टि से पथ भ्रष्ट होने से बचता रहा। सूरजमल के पास बहुत कम विकल्प होने के बावजूद उसने कभी गलत या कमजोर चाल नहीं चली। उसने यत्न किया कि संघर्ष का पथ अपनाने से पहले सब शांतिपूर्ण उपायों से हल निकालने की कोशिश की जाए। अगर हल नहीं निकले तो युद्ध किया जाए।
महाराजा बदनसिंह की मृत्यु के बाद उनके पुत्र महाराजा सूरजमल 1756 ई. में भरतपुर राज्य का शासक बने। राजनैतिक कुशलता और कुशाग्र बुद्धि के कारण उसे जाट जाति का प्लेटों भी कहा जाता है। आगरा, मेरठ, मथुरा, अलीगढ़ आदि उसके राज्य में सम्मिलित थे।
महाराजा सूरजमल अन्य राज्यों की तुलना में हिन्दुस्तान का सबसे शक्तिशाली शासक थे। इनकी सेना में 1500 घुड़सवार व 25 हजार पैदल सैनिक थे। उन्होंने अपने पीछे 10 करोड़ का सैनिक खजाना छोड़ा। मराठा नेता होलकर ने 1754 में कुम्हेर पर आक्रमण कर दिया। महाराजा सूरजमल ने नबाव नजीबुद्दोला द्वारा अहमद शाह अब्दाली के सहयोग से भारत को मजहबी राष्ट्र बनाने को कोशिश को भी विफल कर दिया। इन्होंने अफगान सरदार असंद खान, मीर बख्शी, सलावत खां आदि का दमन किया। अहमद शाह अब्दाली 1757 में दिल्ली पहुच गया और उसकी सेना ने ब्रज के तीर्थ को नष्ट करने के लिए आक्रमण किया। इसको बचाने के लिए केवल महाराजा सूरजमल आगे आये और उनके सैनिको के शौर्य के आगे अब्दाली को पुनः खाली हाथ लौटना पड़ा।
सन 1760 में सदाशिव राव भाऊ और सूरजमल में कुछ बातों पर अनबन हुई थी। मथुरा की नबी मस्जिद को देखकर भाऊ ने गुस्से में कहा सूरजमल जी, मथुरा इतने दिन से आपके कब्जे में फिर भी इस मस्जिद को आपने कैसे छोड़ दिया? महाराजा सूरजमल ने जवाब दिया-अगर मुझे यकीन होता है कि मैं सारी उम्र इस इलाके का बादशाह रहूंगा तो शायद मैं इस मस्जिद को गिरवा देता। पर क्या फायदा ? कल मुसलमान आकर हमारे मंदिरों को गिराएंगे और वहीं पर मस्जिद बनवा देंगे। तो आपको अच्छा लगेगा ?
बाद में फिर भाऊ ने लाल किले के दीवान खास की छत को गिराने का हुक्म दिया था। यह सोचकर कि सोने को बेचकर अपने सैनिकों की तनख्वाह दे दूंगा। इस पर भी सूरजमल ने उसे मना किया और यहां तक कहा कि मेरे से 5 लाख रुपए ले लो पर इसे मत तोड़ो। आखिर नादिरशाह ने भी इस छत को बख्श दिया था। पर भाऊ नहीं माने। जब छत का सोना तोड़ा गया तो वह मुश्किल से 3 लाख का निकला। सूरजमल की कई बातों को भाऊ ने नहीं माना और यह भी कहा बताते हैं-मैं इतनी दूर दक्षिण से आपकी ताकत के भरोसे यहां नहीं आया हूं।
दिल्ली की लूट
सल्तनत काल से मुग़लकाल तक लगभग 600 सालों में ब्रज पर आई मुसीबतों का कारण दिल्ली के मुस्लिम शासक थे। इस कारण ब्रज में इन शासकों के लिए बदले, क्रोध और हिंसा की भावना थी। दिल्ली प्रशासन के सैनिक अधिकारी अपनी धर्मान्धता की वजह से लूटमार करते थे।
महाराजा सूरजमल के समय में परिस्थितियाँ बदल गईं थी। यहाँ के वीर व साहसी पुरुष किसी हमलावर से स्वसुरक्षा में ही नहीं, बल्कि उस पर हमला करने में ख़ुद को काबिल समझने लगे। सूरजमल द्वारा की गई ‘दिल्ली की लूट’ का विवरण उनके राजकवि सूदन द्वारा रचित ‘सुजान चरित्र’ में मिलता है। सूदन ने लिखा है कि महाराजा सूरजमल ने अपने वीर एवं साहसी सैनिकों के साथ सन् 1753 के बैसाख माह में दिल्ली कूच किया। मुग़ल सम्राट की सेना के साथ राजा सूरजमल का संघर्ष कई माह तक होता रहा और कार्तिक के महीने में राजा सूरजमल दिल्ली में दाखिल हुआ। दिल्ली उस समय मुग़लों की राजधानी थी। दिल्ली की लूट में उसे अथाह सम्पत्ति मिली, इसी घटना का विवरण काव्य के रूप में ‘सुजान−चरित्र’ में इस प्रकार किया है-
महाराजा सूरजमल का यह युद्ध जाटों का ही नहीं वरन् ब्रज के वीरों की मिलीजुली कोशिश का परिणाम था। इस युद्ध में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य के अलावा गुर्जर, मैना और अहीरों ने भी बहुत उल्लास के साथ भाग लिया। सूदन ने लिखा है- इस युद्ध में गोसाईं राजेन्द्र गिरि और उमराव गिरि भी अपने नागा सैनिकों के साथ शामिल थे। महाराजा सूरजमल को दिल्ली की लूट में जो अपार धन मिला था, उसे जनहित कार्यों और निर्माण कार्यों में प्रयोग किया गया। दिल्ली विजय के बाद महाराजा सूरजमल ने गोवर्धन जाकर श्री गिरिराज जी की पूजा थी; और मानसी गंगा पर दीपोत्सव मनाया।
14 जनवरी, 1761 में हुए पानीपत के तीसरे युद्ध में मराठा शक्तिओं का संघर्ष अहमदशाह अब्दाली से हुआ। इसमें एक लाख में से आधे मराठा सैनिक मारे गये। मराठा सेना के पास न तो पूरा राशन था और न ही इस क्षेत्र की उन्हें विशेष जानकारी थी। अगर सदाशिव राव महाराजा सूरजमल से छोटी सी बात पर नाराज़ ना होकर उन्हें भी जंग में साथ रखते तो आज भारत की तस्वीर लग होती। महाराजा सूरजमल ने फिर भी दोस्ती का हक अदा किया। 30-40 हजार मराठे सैनिक युद्ध के बाद जब वापस जाने लगे तो भरतपुर के इलाके में पहुंचते-पहुंचते उनका बुरा हाल हो गया था। जख्मी हालत में भूखे-प्यासे, भंयकर सर्दी में बेहाल सैनिक होकर मरने के कगार पर थे, उनके पास सर्दी से बचने के लिए कपड़े भी नहीं थे। ऐसी हालत में 6 महीने तक सूरजमल ने उन्हें भरतपुर में शरण दी। उनके इलाज, भोजन-कपड़े का इंतजाम किया। महारानी किशोरी ने भी जनता से अपील करके अनाज आदि इकट्ठा किया। सुना है कि कोई 20 लाख रुपए उनकी सेवा में खर्च हुए। 6 महीने बाद यहां से जाते हुए हर प्रत्येक सैनिक को 1 रुपया, एक शेर अनाज और कुछ कपड़े आदि दिए ताकि रास्ते का खर्च निकल सके। कुछ मराठी सैनिक लड़ाई से पहले अपने परिवार को भी लाए थे और उन्हें हरियाणा के गांव में छोड़ गए। मराठों के पतन के बाद महाराजा सूरजमल ने गाजियाबाद, रोहतक, झज्जर के इलाके भी जीते। साल 1763 में फरुखनगर पर भी कब्जा किया। 25 दिसंबर 1763 को गाजियाबाद और दिल्ली के मध्य हिंडन नदी के तट पर नवाब नजीबुद्दौला के सैनिक ने घात लगाकर धोखे से महाराजा सूरजमल की हत्या कर दी। वीरों की सेज युद्ध भूमि ही है।
‘यूं ही जाटनी ने ना सही, व्यर्थ प्रसव की पीर।
उसकी कोख से जन्मा, एक सूरजमल सा वीर।