रंजना झा.
बंजर भूमि वह खोदने लगी है,
पिता के साथ हल भी अब जोतने लगी है।
मां के गृहस्थी में भी हाथ बंटाती वो
कक्षा में अव्वल आ कर हवाओं का रुख मोड़ने लगी है।
उड़ा लेती है सहजता से विमान को,
धरती से अंतरिक्ष को जोड़ने लगी है।
परिवारों को जोड़ने की कड़ी, अब बन कर बुढ़ापे की छड़ी
देखो अब बेटियां भी अर्थी को कांधे पर धरने लगी है।
बारिश की नन्हीं बून्द पाकर किरण, इंद्रधनुष सी छाने लगी है
पीहर, ससुराल, बच्चे, घर, दफ्तर, पिता का कर्ज, घर का लोन भी अब चुकाने लगी है।
समंदर में उतरने की ललक, माथे पर लगा, केसरिया तिलक
साहस, शौर्य से संकल्पित हो, मातृभूमि को जीवन भी समर्पित करने लगी है।
संकीर्ण, संकुचित विचारधारा को अनन्त तक विस्तारित कर रही
बंधा का सम्बल, धैर्य से मुखाग्नि भी समर्पित करने लगी है।
किरदार को अब न कीजिए गौण, अन्याय पर अब न बैठेगी बेटी मौन
इतिहास के पटल पर रच कर अगणित कथा
बेटियां अपने अधिकार अस्तित्व के लिए भी लड़ने लगी है।