





राजेश चड्ढ़ा.
पग या पगड़ी देख के साढ़े मन विच बहुत सारियां गल्लां औंदियाँ हन. जिंवे, किसे दी पगड़ी नूँँ ठोकर मारना, पगड़ी तों लँघना या पग नूँ ज़मीन ते रखना अपमान मनेया जाँदा है. जँग दे मैदान तों जेकर किसे दी पगड़ी वापस आ जाये ताँ समझेया जाँदा है कि एह यौद्धा शहीद हो गया।
असीं अक्सर सिखाँ नूँ ही पगाँ बन्नदेयाँ देखदे हाँ. पगड़ी या पग दी परंपरा कोई नवीं नहीं है, एह बहुत पुरानी है. इतिहास विच पगड़ी दा बहुता जिक्र मिलदा है. पहलाँ सिर्फ़ राजे-महाराजे ही पगड़ी बनदे सन. योद्धे पगड़ी नूँ अपनी ताकत दा प्रतीक समझदे सन.
गुरु ग्रन्थ साहिब दी इक वाणी विच भगत नामदेव जी कहँदे हन-
‘खूब तेरी पगड़ी मिट्ठे तेरे बोल’
यानी तेरी पगड़ी किन्नी सुंदर है अते तेरी वाणी किन्नी मिट्ठी है.
उस काल विच ही सिखाँ दी पगड़ी, दरअसल जात अते विशेष अधिकार दा प्रतीक बन गई सी। पहले गुरु नानकदेव जी तों शुरू हो के, सारे सिख गुरुआँ ने पगड़ी बन्नी अते उन्हाँ दा अनुसरण सारी सिख कौम ने कीता।
सोलहवीं सदी विच मुगल हमलावराँ ने फ़रमान जारी कीता कि सिर्फ़ इस्लामी शासकाँ अते अधिकारियाँ नूँ ही पगड़ी दा सनमान दिता जावेगा। एह सुण के पँजवें गुरु अर्जन देव जी, शासक वर्ग दे ज़ुल्माँ दे खिलाफ एह कहँदे होये खड़े हो गये कि, ‘मुगल इक पगड़ी बनदे हन, असीं दो पगाँ बन्नाँगे।’ इसलयी दुमल्ला, इक किस्म दी दोहरी पग, जेड़ी इक दे ऊपर इक बन्नी जाँदी सी, सिख योद्धावाँ विच प्रसिद्ध हो गयी।
सिख कौम पग नूँ गुरु दा तोहफ़ा मनदी है. सतरहवीं सदी विच बैसाखी दे दिन दशम गुरु, गुरु गोविंद सिंह जी ने अपने खास लोकाँ नूँ पग तोहफ़े दी शक्ल विच दिती सी. सब तों करीबी पँज लोकाँ नूँ अमृत छकौण तों बाद गुरू जी ने उन्हाँ पँज प्यारेयाँ नूँ जेड़े वस्त्र भेंट कीते उस विच पग वी सी.

गुरु गोविंद सिंह जी दे समय विच वी पग सनमान दे रूप विच देखी जाँदी सी. पग कुलीनता दा प्रतीक सी. उस समय विच मुगल नवाब या हिंदू राजपूत नूँ उन्हाँ दी पग तों जानेया अते पछाणेया जाँदा सी. हिंदू राजपूत लोकाँ दी पगड़ी थोड़ी वखरी तरह दी हुँदी सी. हिंदू राजपूत पग बन्नन दे नाल हथियार वी रखदे सन. उन्हाँ नूँ दाढ़ी अते मुच्छाँ रखन दी वी इजाजत सी. पर उस दौरान हर सिख नूँ पगड़ी बन्नना, तलवार चलाना अते अपने नाम दे अग्गे सिंह या कौर लिखन दी इजाजत नहीं सी. पर गुरु गोबिंद सिंह जी ने सारे सिखाँ नूँ तलवार चलान दी, अपने नाम दे अग्गे सिंह अते कौर लिखन दी अते केश रखन दी आजादी दिती.
इस नाल सिख कौम दे अंदर वड्डे-छोटे लोकाँ विचकार दा फासला खत्म हो गया.
पँजाबी कौम विच खालसा सिखाँ ते कमजोर तबके दे लोकाँ दी हिफ़ाज़त दी जिम्मेदारी हुँदी है. सिख योद्धावाँ नूँ खालसा कहँदे हन. एह पग बन्नदे हन अते गुरु गोविंद सिंह जी दी शिक्षा दे मुताबिक कदे बाल नहीं कटवौंदे. सिख इतिहास दसदा है कि गुरु गोविंद सिंह जी ने अपने दोंवे साहिबज़ादे अजीत सिंह अते जुझार सिंह नूँ सिर ते पग बन्नी अते हथियार दे के एह ज़िम्मेदारी निभौण दा हुकम दिता सी.

गुरु गोविंद सिंह जी ने अपने दोंवे साहिबज़ादेयाँ नूँ लाड़ेयाँ वाँग सजा के जँग दे मैदान विच भेजेया अते दोंवे जँग दे मैदान विच शहीद हो गए.
सिर ते पग बन्नना सिख सभ्याचार दा सब तों महत्वपूर्ण हिस्सा है. पग नूँ सिख धर्म दी मौजूदगी मनेया जाँदा है. अमृत धारी सिखाँ लयी पग धारण करना बहुत ज़रुरी है. खालसा सिख पग दे नाल-नाल केश, कंघा, कड़ा, कृपाण वी रखदे हन. सिख पगड़ी नूँ सिर्फ़ सभ्याचारक विरासत ही नही मनदे, सगों उन्हाँ लयी एह सनमान अते स्वाभिमान दे नाल-नाल हिम्मत अते आध्यात्मिकता दा वी प्रतीक है. एत्थों तक कि सिख परंपरा विच बिना किसी स्वार्थ दे समाज दी सेवा नूँ रवायती तौर ते पगड़ी दे के सनमानित कीता जाँदा है.
अपने सब तों करीबी दोस्ताँ-मित्राँ दे नाल पग दा वटोन्दरा कीता जाँदा है. इक वार पग दा वटोन्दरा करन दे बाद उन्हाँ नूँ ताउम्र दोस्ती दा रिश्ता निभौणा हुँदा है. पग नूँ जिम्मेदारी दा प्रतीक मनेया जाँदा है.
अठारहवीं सदी दे दौरान जद पंजाब विच ब्रितानिया हुकूमत मजबूत होयी तद पगाँ बन्नन दे तरीकेयाँ विच कई बदलाव होये. उस वक्त पगड़ी दा इस्तेमाल सिख सिपाहियाँ नूँ दूजेयाँ तों वखरा करन लयी कीता गया. अंग्रेज़ाँ ने सिखाँ लयी इक खास तरहाँ दी इको वरगी पग दा चलन शुरू कीता. पहलाँ एह पग केन्याई स्टाइल दी सी पर बाद विच पग दा रंग अते आकार बदल दिता गया. अंग्रेज़ाँ दी वजहों सिखाँ ने अपनी दाढ़ी नूँ बन्नना शुरु कर दिता क्योंकि अंग्रेज़ी बंदूक चलौंदे वक्त खुली होयी दाढ़ी विच आग लगन दा डर रहँदा सी. इसलयी सिख सिपाहियाँ नूँ समझाया गया कि दाढ़ी नूँ ठोड्डी दे नेड़े बन्नया जावे, ताकि आग ना लगे. हौली-हौली ए परंपरा बन गयी अते आज वी सिख धर्म विच इसदी पालना हुँदी है.

भारत दी आज़ादी तों बाद सिख भाँवे दुनिया दे किसी मुल्क विच होवे, उसने अपनी पग बन्नन दी परंपरा नूँ बरकरार रखेया है.
सिख धर्म विच पगड़ी बन्नन दी परंपरा सिर्फ़ आदमियाँ तक सीमित नहीं है. सिख कौम दियाँ औरताँ वी पग बन्नदियाँ हन. सिख सभ्याचार विच अमृत छकन दी इक रस्म हुँदी है, जिस विच सिख आदमी या औरताँ अमृत छक के पँज ककाराँ नूँ अपनौंदे हन. पँज ककार यानी केश, कृपाण, कंघा, कड़ा अते कच्छा. इस परंपरा नूँ समपूरण करन तों बाद सिख औरताँ नूँ वी दस्तार यानी पग बन्नन दी आज़ादी मिल जाँदी है. पगड़ी या पग दा एह इतिहास इस गल दा सुबूत है कि पग दी परम्परा नूँ मनन वाला खालसा पँथ इक विरला सभ्याचारक पँथ है.
-लेखक जाने-माने शायर और आकाशवाणी के पूर्व वरिष्ठ उद्घोषक हैं





