मुनव्वर राना नहीं रहे। उन्होंने 14 जनवरी की रात अंतिम सांस ली। देश और दुनिया में उनके चाहने वालों की बड़ी तादाद है। मुनव्वर राना के ट्रक ट्रांसपोटर से नामचीन शायर बनने की कहानी बता रहे हैं जाने-माने आलोचक विजेंद्र शर्मा …..
सर्दी की वो एक कंपकंपाती रात थी। उर्दू अकादमी, दिल्ली ने गणतंत्र दिवस के उपलक्ष में एक मुशायरे का आयोजन किया था। जगह थी दिल्ली का ताल-कटोरा इंडोर स्टेडियम। जहाँ तक मुझे याद है 24 जनवरी 2003 का दिन था और मुशायरे की निज़ामत कर रहे थे जनाब मलिकज़ादा ‘मंज़ूर’। उन्होंने एक नाम पुकारा कि अब मैं ज़हमते-सुखन दे रहा हूँ कलकत्ते से तशरीफ़ लाये जनाबे-मुनव्वर राना को। पूरा हाल तालियों से गूँज उठा। मैंने नाम तो सुना था पर उनके क़लाम से वाकिफ़ न था। बड़ी- बड़ी आंखों वाला एक रौबीला चेहरा माइक के सामने आया। जैसा नाम वैसा मुनव्वर चेहरा और उन्होंने बिना किसी तमहीद (भूमिका) के एक मतला सुनाया……..
बस इतनी बात पे उसने हमें ‘बलवाई’ लिखा है
हमारे घर के एक बर्तन पर आईएसआई लिखा है
मतला सुनते ही फिर एकबार पूरा हाल वाह-वाह से गूँज गया।ं मुझे लगा कि मैंने आज तक जो शायरी सुनी थी वो सब इस मतले के आगे फीकी थी। इसके बाद उन्होंने अपनी एक ग़ज़ल सुनाई जिसे सुनने के बाद तो मैं उनका मुरीद हो गया उस ग़ज़ल का मतला और एक शेर यूँ था …
मुहब्बत करने वाला ज़िन्दगी भर कुछ नहीं कहता
के दरिया शौर करता है, समन्दर कुछ नहीं कहता
तो क्या मजबूरियां बेजान चीज़ें भी समझती हैं
गले से जब उतरता है तो ज़ेवर कुछ नहीं कहता
इसके बाद उन्होंने एक-दो ग़ज़लें और सुनाई और अपनी जगह ले ली। सच में शायरी के एक नए रंग से उस दिन मैं रु-बरु हुआ था। उनके एक-एक मिसरे पे सच में सन्न हो गया। मैंने देखा कि मुनव्वर साहेब पीछे की तरफ़ गए हैं।मैं भी उनसे मिलने के लिए गया। दरअसल मुनव्वर साहेब सिगरेट का कश लेने मंच के पीछे आए थे। दुआ-सलाम के तकल्लुफ़ के बाद मैंने कहा कि हुज़ूर ये शेर ज़रा खुला नहीं अगर आप इसकी वज़ाहत कर दें तो बड़ी मेहरबानी होगी। उन्होंने कहा कहिए…। मैंने शेर सुनाया ‘तो क्या मजबूरियां बेजान चीज़ें भी समझती हैं/गले से जब उतरता है तो ज़ेवर कुछ नहीं कहता।’
उन्होंने कहा कि जब आप किसी को कोई चीज़ दिलाते है या फ़र्ज़ करिए अपनी बीवी को आप कोई चेन दिलाते है तो वो ज़ेवर ख़ुद बढ़-चढ़ के बोलता है कि मुझे किसी ने पहना है। मगर किसी मज़बूरी में जब वही चेन बिकती है तो ज़ेवर चुपचाप बिक जाता है यानि जो मज़बूरी होती है उसे बेजान चीज़ें भी समझती है यही मफ़हूम है इस शेर का। इतना सुनना था कि मेरी आँखे नम हो गई और उसदिन से मैं मुनव्वर साहेब का मुरीद हो गया। शायरी ऐसे मौजू पे भी हो सकती है मैंने ज़िन्दगी में पहली मरतबा देखा, सुना और महसूस किया।
मुनव्वर राना का जन्म सई नदी के किनारे बसे तारीख़ी शहर रायबरेली (उतर प्रदेश ) में 26 नवम्बर, 1952 में हुआ। इनके बुज़ुर्ग बरसों से वहाँ मदरसे में पढ़ाने का काम करते थे। जब मुल्क का बँटवारा हुआ तब मुनव्वर साहेब के दादा-दादी पकिस्तान चले गए और मुनव्वर साहेब के अब्बू मरहूम सैयद अनवर अली अपनी ज़मीं से मुहब्बत के चक्कर में पकिस्तान नहीं गए। हालात् ने उनके हाथ में ट्रक का स्टेरिंग थमा दिया और इनकी माँ मजदूरी करने लगी। अच्छा भला परिवार मुल्क के टुकड़े होने के बाद ग़ुरबत की चाद्दर में लिपट गया। हालात् ने मुनव्वर राना को बचपन में ही जवान कर दिया। मुनव्वर साहेब ने कहीं लिखा है कि मेरे अब्बू ट्रक चलाके थक जाते थे, उन्हें नींद आती थी और मुमकिन है उन्होंने बहुत से ख़्वाब देखें हों। अम्मी से नींद कोसों दूर थी। लिहाज़ा अम्मी ने कभी ख़्वाब नहीं देखे। मुनव्वर साहेब के वालिद ने 1964 में अपना ट्रांसपोर्ट का छोटा सा कारोबार कलकत्ते में शुरू किया और 1968 में मुनव्वर साहेब भी अब्बू के पास रायबरेली से कलकत्ते आ गए। मुनव्वर साहेब ने कलकत्ता के मोहम्मद जान स्कूल से हायर सेकेंडरी और उमेश चन्द्र कालेज से बी.कॉम. किया। इनके अब्बू शायरी के शौकीन थे सो शायरी की तरफ़ झुकाव वाज़िब था। मुनव्वर साहेब के वालिद नहीं चाहते थे कि वे शायर बने पर तक़दीर के लिखे को कौन टाल सकता है। जदीद (आधुनिक) शायरी को नया ज़ाविया जो मिलना था। ग़ज़ल जो मैखाने से कभी बाहर नहीं निकली थी। जो कोठों से कभी नीचे नहीं उतरी थी। महबूब के गेसुओं में उलझी ग़ज़ल को नया आयाम जो मिलना था। मुनव्वर न चाहते हुए भी शायर हो गए। शुरूआती दिनों में वे प्रो. एज़ाज़ अफ़ज़ल साहेब से कलकत्ते में इस्लाह लेते थे और उनका तख़ल्लुस था ‘आतिश’ यानी क़लमीनाम था मुनव्वर अली ‘आतिश’। बाद में लखनऊ में उनकी मुलाक़ात वाली आसी साहेब से हुई जो मुनव्वर राना के बाकायदा उस्ताद हुए। मुनव्वर अली ‘आतिश’ को नया नाम मुनव्वर राना उनके उस्ताद वाली आसी ने ही दिया।
फिलहाल मुनव्वर साहेब का अपना ट्रांसपोर्ट का बहुत बड़ा कारोबार कोलकत्ता में है और वे ख़ुद लखनऊ में रहते थे।
इसमें कोई शक़ नहीं कि मुनव्वर राना ने शायरी की रिवायत से हटकर शे‘र कहे हैं। उनका मानना था कि ग़ज़ल के मानी महबूब से गुफ्तगू करना है। तुलसी के महबूब राम थे और मैं अपनी माँ को अपना महबूब मानता हूँ। माँ पर कहे उनके शे‘र पूरी दुनिया में मक़बूल है…..
चलती-फिरती हुई आँखों में अजाँ देखी है
मैंने जन्नत तो नहीं देखी है, माँ देखी है
तेरे दामन में सितारे हैं तो होंगे ऐ फ़लक
मुझको अपनी माँ की मैली ओढ़नी अच्छी लगी
बुलंदियों का बड़े से बड़ा निशान छुआ
उठाया गोद में माँ ने तो आसमान छुआ
ये ऐसा क़र्ज़ है जो मैं अदा कर ही नहीं सकता
मैं जब तक घर न लौटूं मेरी माँ सजदे में रहती है
जब भी कश्ती मेरी सैलाब में आ जाती है
माँ दुआ करती हुई ख़्वाब में आ जाती है
‘मुनव्वर’ माँ के आगे कभी खुलकर नहीं रोना
जहाँ बुनियाद हो इतनी नमी अच्छी नहीं होती
किसी को घर मिला हिस्से में या कोई दुकाँ आयी
मैं घर में सब से छोटा था मेरे हिस्से में माँ आयी
मैंने रोते हुए पोंछे थे किसी दिन आंसू
मुद्दतों नहीं धोया माँ ने दुपट्टा अपना
मुनव्वर राना की शायरी में महबूब की जुल्फें, मैखाने का मंज़र, साकी-ओ-पैमाना और हुस्न की तारीफ़ तो नज़र नहीं आती पर मुनव्वर साहेब ने माँ, बेटी, बचपन, रिश्तों की नाज़ुकी, ग़ुरबत, वतन ,घर-आँगन और ज़िन्दगी के तमाम रंगों पे शायरी की है। उनके ये अशआर इस बात की तस्दीक करते है।
ग़ज़ल वो सिन्फ़ ए नाज़ुक है जिसे अपनी रफ़ाक़त से
वो महबूबा बना लेता है, मैं बेटी बनाता हूँ
समझौतों की भीड़-भाड़ में सबसे रिश्ता टूट गया
इतने घुटने टेके हमने आखिर घुटना टूट गया
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हम सायादार पेड़ ज़माने के काम आये
जब सूखने लगे तो जलाने के काम आये
तलवार की मयान कभी फेंकना नहीं
मुमकिन है, दुश्मनों को डराने के काम आये
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शक्कर फिरकापरस्ती की तरह रहती है नस्लों तक
ये बिमारी करेले और जामुन से नहीं जाती
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सो जाते है फुटपाथ पे अख़बार बिछाकर
मज़दूर कभी नींद की गोली नहीं खाते
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फ़िज़ां में घोल दी है नफरतें अहल ए सियासत ने
मगर पानी कुँए का आज तक मीठा निकलता है
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बिछड़ना उसकी ख़्वाहिश थी, न मेरी आरज़ू लेकिन
ज़रा-सी ज़िद ने आँगन का बँटवारा कराया है
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उम्र भर सांप से शर्मिन्दा रहे ये सुन कर
जब से इन्सान को काटा है फन दुखता है
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ये देख कर पतंगे भी हैरान हो गई
अब तो छतें भी हिन्दू-मुसलमां हो गई
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ज़िन्दगी से हर ख़ुशी अब ग़ैरहाज़िर हो गयी
इक शक्कर होना थी बाकी वो भी आखिर हो गयी
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बदन में दौड़ता सारा लहू ईमान वाला है
मगर ज़ालिम समझता है कि पाकिस्तान वाला है
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हमारे फ़न की बदौलत हमे तलाश करे
मज़ा तो जब है कि शोहरत हमे तलाश करे
मुनव्वर राना की शायरी में जो सबसे अहम बात है कि वे काफ़िये भी रिवायत से हटकर इस्तेमाल करते थे। जैसे…
दुनिया सलूक करती है हलवाई की तरह
तुम भी उतारे जाओगे मलाई की तरह
माँ बाप मुफलिसों की तरह देखते हैं बस
कद बेटियों के बढ़ते हैं महंगाई की तरह
हम चाहते हैं रक्खे हमें भी ज़माना याद
ग़ालिब के शेर तुलसी की चौपाई की तरह
हमसे हमारी पिछली कहानी न पूछिए
हम खुद उधड़ने लगते हैं तुरपाई की तरह
मुनव्वर राना सही मायनों में कलन्दर शायर थे। उनके ये मिसरे इसकी पुरज़ोर गवाही देते हैं….
ये दरवेशों कि बस्ती है यहाँ ऐसा नहीं होगा
लिबास ऐ ज़िन्दगी फट जाएगा मैला नहीं होगा
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जाओ, जाकर किसी दरवेश की अज़मत देखो
ताज पहने हुए पैरों में पड़े रहते है
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कलन्दर संगेमरमर के मकानों में नहीं मिलता
मैं असली घी हूँ, बनिए की दुकानों में नहीं मिलता
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चले सरहद की जानिब और छाती खोल दी हमने
बढ़ाने पर पतंग आए तो चरखी खोल दी हमने
पड़ा रहने दो अपने बोरियेपर हम फकीरों को
फटी रह जायेंगी आँखे जो मुट्ठी खोल दी हमने
मुनव्वर राना ने देश के विभाजन का दर्द झेला है। उनका पूरा परिवार उस वक््त पाकिस्तान चला गया। इस दर्द को उन्होंने अपनी किताब ‘मुहाजिरनामा’ में बयान किया है। एक हीरदीफ़ काफ़िये पे उन्होंने तकरीबन 500 शेर कहे हैं। दरअसल ‘मुहाजिरनामा’ उन लोगों का दर्द है जो उस वक्त हिंदुस्तान छोड़कर पाक चले गए थे और ‘मुहाजिरनामा’ मुहाजिरों की जानिब से हुकूमते पाक को एक करारा जवाब भी है। मुहाजिरनामा में से कुछ अशआर…..
मुहाजिर है मगर हम एक दुनिया छोड़ आये हैं
तुम्हारे पास जितना है हम उतना छोड़ आये हैं
वुजू करने को जब भी बैठते है याद आता है
कि हम उजलत में जमुना का किनारा छोड़ आये हैं
तयम्मुम के लिए मिट्टी भला किस मुंह से हम ढूंढें
कि हम शफ्फाक़ गंगा का किनारा छोड़ आये हैं
हमें तारीख़ भी इक खान-ऐ- मुजरिम में रखेगी
गले मस्जिद से मिलता एक शिवाला छोड़ आये हैं
ये खुदगर्ज़ी का जज़्बा आज तक हमको रुलाता है
कि हम बेटे तो ले आये भतीजा छोड़ आये हैं
न जाने कितने चेहरों को धुंआ करके चले आये
न जाने कितनी आंखों को छलकता छोड़ आये हैं
गले मिलती हुई नदियाँ गले मिलते हुए मज़हब,
इलाहाबाद में कैसा नाज़ारा छोड़ आए हैं
शकर इस जिस्म से खिलवाड़ करना कैसे छोड़ेगी के
हम जामुन के पेड़ों को अकेला छोड़ आए हैं
मुनव्वर राना साहेब घुटनों की बीमारी समेत अन्य बीमारियों से से जूझ रहे थे। पिछले दिनों उन्हें अस्पताल में बहुत रहना पड़ा। वहाँ उन्होंने एक ग़ज़ल कही उसी का एक मतला और एक शे‘र है…..
मौला ये तमन्ना है की जब जान से जाऊं
जिस शान से आया हूँ उसी शान से जाऊं
क्या सूखे हुए फूल की किस्मत का भरोसा
मालूम नहीं कब तेरे गुलदान से जाऊं
-लेखक साहित्य जगत में जाने-माने आलोचक की पहचान रखते हैं व पेशे से बीएसएफ के अधिकारी हैं