डॉ. संतोष राजपुरोहित.
भारतीय आर्थिक संघ की उड़ीसा में हुई वार्षिक बैठक में भारतीय अर्थव्यवस्था के सामने चुनौतियों पर मंथन हुआ। योजना आयोग के पूर्व उपाध्यक्ष डॉ मोंटेक सिंह आहलूवालिया, सेबी के प्रमुख अर्थशास्त्री डॉ प्रभाष रथ, नेशनल स्टॉक एक्सचेंज के मुख्य अर्थशास्त्री डॉ तीर्थंकर पटनायक सहित अनेकों विख्यात अर्थशास्त्री शामिल हुए। अधिवेशन में एक सत्र वर्तमान में भारतीय अर्थव्यवस्था के समक्ष चुनौती और अवसर विषय पर था। इस पर चर्चा के कुछ बिन्दु मैं आपसे साझा करना चाहता हूँ।
दरअसल, तमाम विपरीत परिस्थितियों के बावजूद भारत तेजी से उभरती हुई अर्थव्यवस्था के रूप में दिख रहा हैं। भारत दुनिया की सबसे तेजी से बढ़ती बड़ी अर्थव्यवस्था हैं। हमारा विदेशी मुद्रा भण्डार दुनिया मे चौथा सबसे बड़ा हैं। लेकिन मुद्रा स्फीति, राजकोषीय और चालू खाते के घाटे की चुनौतियाँ भी हैं।
रूस-यूक्रेन संकट, इजरायल-फिलिस्तीन संकट सहित मिडिल ईस्ट अनरेस्ट के कारण वैश्विक अर्थव्यवस्था में ग्रोथ का मोमेंटम कमजोर रहेगा। जिसका प्रभाव देर सवेरे भारत पर भी पड़ना स्वभाविक हैं। ऐसे में 7 फीसदी ग्रोथ रेट को हासिल करते जाना मुश्किल होगा। नीति-निर्माताओं को इसके लिए तैयार रहना चाहिए। मुद्रा स्फीति और चालू खाते का घाटा बढ़ा हुआ हैं। अगर दुनिया मे ब्याज दरें ऊंची रही तो इससे भारत मे पूंजी का प्रवाह बाधित होगा।
विकास दर को कायम रखने के लिए केन्द्र और राज्यों का सांझा राजकोषीय घाटा कम करना होगा। अर्थव्यवस्था में निवेश का स्तर प्रभावी तरीके से बढ़ाना होगा। आर्थिक सुधारों को आगे बढ़ाना होगा, ताकि हमारी दक्षता बढ़े और उत्पादक निवेश आकर्षित हो।
आज केन्द्र और राज्य का साझा राजकोषीय घाटा जीडीपी के 11 फीसदी के बराबर हैं, जो कि दूसरे विकासशील देशों की तुलना में बहुत ज्यादा हैं। दरअसल पिछले कई वर्षों में राज्यों में चुनाव जीतने के लिए मुफ्त बांटने की अर्थव्यवस्था का तेजी से विकास हुआ हैं, फलस्वरूप राज्यों का राजकोषीय घाटा अत्यधिक बढ़ा हैं, परिणामस्वरूप कर्जा भी।
दरअसल शिक्षा, स्वास्थ्य और बुनियादी आवश्यकताओं पर खर्च करना कल्याणकारी राज्य के लिए आवश्यक हैं, लेकिन मुफ्त मोबाइल बांटना, टेलीविजन बांटना आर्थिक रूप से किसी भी राज्य के लिए कहाँ तक न्याय संगत हैं। निवेश बढ़ाने के लिए उत्पादकता में बढ़ोतरी आवश्यक हैं, क्योंकि ऊंची ग्रोथ केवल निवेश बढ़ाने से नही आती, श्रम उत्पादकता भी जरूरी हैं।
अतः केवल मुफ्त देकर आश्रित जनसंख्या बढ़ाने की अपेक्षा उन्हें प्रशिक्षण देकर कुशलता बढ़ानी चाहिए ताकि प्रति व्यक्ति उत्पादकता में बढ़ोतरी हो। साथ ही व्यक्तिगत स्तर पर भी बेहतरी के लिए दीर्घकालिन उचित समाधान यही हैं। आर्थिक सुधारों को लागू करने से पहले सरकार व्यापक जनजागरूकता लाने का प्रयास करें कि यह सुधार क्यों आवश्यक हैं और दृढ़तापूर्वक उन्हें लागू करें।
साथ ही याद रखे ंकि सुधार केवल केन्द्र द्वारा नही किये जाते, कम से कम आधे ऐसे जरूरी सुधार हैं जो राज्य सरकारों के द्वारा किये जाने हैं। बिजली प्रदान करना और भूमि-बाजार संबंधी सुधार राज्य सरकारों के दायरे में आते हैं। लेकिन अक्सर कहा जाता हैं न कि अच्छा अर्थशास्त्र अच्छी राजनीति नही होता हैं!
–लेखक राजस्थान आर्थिक परिषद के अध्यक्ष रहे हैं