






ओम पारीक.
कभी जब बादल सावन की छतरी तानते थे, जब खेतों की मेड़ों पर हरियाली मुस्कुराती थी, पोखरों और तालाबों में बरसात का पानी झिलमिलाता था, तब गांव का मन भी हरियाने लगता था। ऐसे ही मौसम में, एक समय था जब ‘वन भोजन’ एक सामूहिक उत्सव बन जाता था। आज की भाग-दौड़ और सुविधाओं की भरमार में यह परंपरा भले ही धुंधला गई हो, पर उन स्मृतियों की महक आज भी मानस पटल पर ताजगी बिखेरती है।
हमारे समय में, विशेषकर 1980 और 90 के दशक में, वन भोजन सिर्फ खाने का आयोजन नहीं होता था, वह गांव की साझी संस्कृति, आत्मीयता और प्रकृति से जुड़ाव का उत्सव होता था। सावन-भादो की हरियाली, बारिश की गंध, और बहती हवा, इन सबके बीच खेतों के किनारे, नर्सरियों या झाड़ियों की ओट में चटाई बिछा कर भोजन करना एक अलौकिक आनंद देता था।
खीर, मालपुए, गुलगुले, पकौड़ी, और गर्मागरम रोटी की सुगंध जितनी स्वादिष्ट होती, उससे भी ज्यादा मीठा होता था वह मिल बैठकर खाने का भाव। खाना पकाने से लेकर परोसने तक सब मिलकर करते, कोई शिकायत नहीं, बस साथ में हँसी के ठहाके होते।
हमारे चूरू-बीकानेर क्षेत्र में ‘च्यानना गोगा की बरसात’ एक प्रतीक थी, भादवा के शुक्ल पक्ष में होने वाली वह बारिश, जो रबी की तैयारी का संकेत देती थी। इस मौके पर गांव के लोग खेतों में जाकर हवन करते, प्रसाद के रूप में चावल, साढ़े और शक्कर का मीठा भोजन करते। यही वो समय होता जब खेत में आटे और गुड़ के गुलगुले बनते, साथ में पकौड़े जरूर होते।
खेती के काम के बीच पकता यह सादा-सरल मगर आत्मा तक तृप्त कर देने वाला भोजन, आज के होटलों के सजावटी व्यंजनों से कहीं ज्यादा स्वादिष्ट होता। यह भोजन केवल पेट नहीं भरता था, यह रिश्तों को, स्मृतियों को और भावनाओं को भी भरता था।
बाबा रामदेव धर्मशाला: चटनी-रोटी की गोठ
रावतसर की बाबा रामदेव धर्मशाला में रविवार की संध्या को लहसुन की चटनी और गेहूं-चना की रोटी का जो भोज होता था, वह समाजिक सहकार और आत्मीय संवाद का अनूठा उदाहरण था। करीब एक दर्जन लोग जुटते, खाना खाते, खर्चा वहीँ आपस में साझा होता। खाना खाने के बाद बर्तन धोना भी खुद ही होता। इस आयोजन में शहर और गांव की हफ्ते भर की हलचलें साझा होती, राजनीतिक चर्चा से लेकर सामाजिक समस्याएं, सब कुछ इसी गोठ में सुलझते।
आज उन दिनों को याद करते हुए बनवारीलाल दायमा, शंकरलाल शर्मा, मंशाराम च्यानन, राम माली, सोहनलाल पारीक जैसे नाम स्वतः ही स्मृतियों में उभर आते हैं। इन आत्मीय आयोजनों में केवल भोजन नहीं होता था, एक जीवनशैली होती थी। आज उन आयोजनों का अंत उन्हीं लोगों के साथ हो गया।
होटल का भोजन नहीं देता आत्मीयता का स्वाद
आज के दौर में वन भोजन की गोठें होटलों में होने लगी हैं। खाना अब घर से नहीं बनता, मंगवाया जाता है। सब कुछ ‘सर्व-सुविधा युक्त’ है, लेकिन वह आनंद, वह आत्मीय रस गायब है। प्रकृति की गोद में, अपनी मेहनत से बने खाने को साथियों संग मिल बांटकर खाना और होटल की थाली में मिर्च मसाले गिनना, इन दोनों के बीच वही फर्क है जो नदी में डुबकी लगाने और नल से नहाने में होता है।
पर्यटन का टोटा, सोच की कमी
हमारे इलाके में आज भी इस तरह के पारंपरिक वन-भोज स्थलों या छोटे पर्यटन केंद्रों का अभाव है। प्रशासनिक सोच ने कभी इस दिशा में गहराई से काम नहीं किया। अगर गांवों में ही सुरक्षित वन क्षेत्र, छोटी-बड़ी नर्सरियां, और हरियाली से भरपूर पार्क बनाए जाएं तो आज की पीढ़ी भी उस स्वाद और अनुभव से जुड़ सके, जो हम कभी जिया करते थे।
काश, फिर लौट आते वो दिन
संघर्ष, एकाकीपन और भागदौड़ से भरे आज के जीवन में अगर कुछ जोड़ना है, तो वह है सामूहिकता, सादगी और प्रकृति से जुड़ाव। वन भोजन केवल अतीत की स्मृति नहीं, वह एक संदेश है, कि हमें फिर से अपने मूल की ओर लौटना होगा।
जहां लोग साथ बैठकर खाएं, हँसे, बातें करें और रिश्तों को पके हुए गुलगुलों की तरह मीठा करें।
क्यों न हम इस सावन एक दिन निकलें…
जंगल की ओर, चटनी-रोटी की थाली लेकर…
संग अपने बीते बचपन की हँसी लेकर…!
-लेखक स्थानीय संस्कृति, परंपरा और सामाजिक सहयोग के सजग संवाहक व ठेठ ग्रामीण शैली के वरिष्ठ पत्रकार हैं



