आजादी के वक्त देश की 83 फीसद आबादी गांवों में निवास करती थी। अब ग्रामीण क्षेत्र की आबादी घटकर 65 फीसद से कम रह गई है। जिस तेजी के साथ लोग गांवों से पलायन कर रहे हैं, चिंताजनक है। तो क्या इस सदी में गांव यानी गाम गुम जाएगा ?

गोपाल झा.
शहर जाकर बस गया हर शख्स पैसे के लिए
ख्वाहिशों ने मेरा पूरा गांव खाली कर दिया।
इस पंक्ति को पढ़कर न सिर्फ गांव बल्कि एक ग्रामीण के भीतर असहनीय दर्द का अहसास होता है। गांव। गुमसुम सा। न बच्चों की चहलकदमी। पशुओं की आवाज भी नहीं। अधिकांश मकान पक्के हो गए लेकिन उन पर लटके हैं ताले। कई पुराने मकान तो सार-संभाल के अभाव में खंडहर लगने लगे हैं। दरअसल, यह किसी एक गांव की कहानी नहीं। देश के अधिकांश गांव वीरान हो चुके हैं। लोग गांवों में रहना पसंद नहीं करते। गांव से कुछ दूरी पर स्थित शहर में रहने को प्राथमिकता दे रहे हैं। गांव में रहना पिछड़ेपन की पहचान हो गई हो जैसे।
2011 की जनगणना रिपोर्ट पर गौर करें तो देश की 68 प्रतिशत जनसंख्या गांवों में निवास करती है और 32 प्रतिशत जनसंख्या शहरों में। आजादी के बाद देश में पहली जनगणना हुई थी वर्ष 1951 में। उस वक्त ग्रामीण एवं शहरी आबादी का अनुपात 83 प्रतिशत एवं 17 प्रतिशत था। पांच दशक बाद 2001 की जनगणना में ग्रामीण एवं शहरी जनसंख्या का प्रतिशत 74 एवं 26 प्रतिशत हो गया। वर्तमान में यह स्थिति और विकट हो चुकी है। आंकड़ों से स्पष्ट होता है कि भारतीय ग्रामीण लोगों का शहरों की ओर पलायन तेजी से बढ़ रहा है। गांवों से शहरों की ओर पलायन का सिलसिला कोई नई बात नहीं है। गांवों में कृषि भूमि में लगातार कमी आना, आबादी बढ़ने और प्राकृतिक आपदाओं के चलते रोजी-रोटी की तलाश में ग्रामीणों को शहरों-कस्बों की ओर रुख करना पड़ता है।

भारतीय प्रशासनिक सेवा के पूर्व अधिकारी आरएन अरविंद को शहर की आबोहवा रास नहीं आई। वे झुंझुनूं के चिड़ावा से करीब 30 किमी दूर पुश्तैनी खेत स्थित ढाणी में रहते हैं। पूर्व आईएएस आरएन अरविंद ‘ग्राम सेतु’ से कहते हैं,‘ लोग सुविधाओं की कमी के कारण गांव छोड़ रहे हैं। अगर सरकार चाहे तो इस पर रोक लगा सकती है। मसलन, ग्रामीण क्षेत्र में बड़े अस्पताल बनें, विश्वविद्यालय की स्थापना हो। शहरों की तरह गांवों में भी बिजली सुविधा मिले। कोचिंग इंस्टीट्यूट खुलें। बेस्ट से बेस्ट टीचर्स लगाए जाएं। सड़कों का जाल बने तो कोई शहरों की तरफ रुख क्यों करेगा?’

सामाजिक चिंतक डॉ. भरत ओला कहते हैं, ‘गांवों में मूलभूत सुविधाओं की कमी पलायन का बड़ा कारण है। आज भी गांवों में शहरों की तुलना रोजगार और शिक्षा के साथ-साथ बिजली, आवास, सड़क, संचार, स्वच्छता जैसी मूलभूत सुविधाएं बेहद कम है। इन असुविधाओं के साथ-साथ गांवों में भेदभावपूर्ण सामाजिक व्यवस्था के चलते शोषण और उत्पीड़न से तंग आकर भी बहुत से लोग शहरों का रुख कर लेते हैं।’

सामाजिक चिंतक कृष्णदेव मिश्र ‘ग्राम सेतु’ से कहते हैं, ‘ग्रामीण क्षेत्रों को विकास की लहर से जोड़ना चाहिए। अगर आप गांवों में मूलभूत सुविधाओं के साथ रोजगार के अवसर तलाशेंगे तो कोई भला अपनी धरती छोड़ दूसरी जगहों पर क्यों जाना चाहेगा?’ यहीं दूसरी ओर यदि वर्तमान परिप्रेक्ष्य की बात करें तो पिछले कुछ दशकों से ग्रामीण क्षेत्रों से हो रहे प्रवास में अधिकता पायी गयी है। जो समय के साथ-साथ पूर्ण प्रवास अर्थात् पलायन में तब्दील हो रहा है। परिणामस्वरूप कई नकारात्मक तथ्य सामने आ रहे हैं, जिसमें गांव का लुप्त होना मुख्य पाया गया है।
आखिर, यह पलायन है क्या?

शिक्षाविद् प्रो. लीलाकांत झा कहते हैं, ‘अपनी जरूरत पूरी करने के लिए एक जगह से दूसरी जगह जाने के लिए मजबूर होना पलायन की परिभाषा में आता है। इसके कई रूप देखे जा सकते हैं। गांव के गांव खाली हो रहे। महानगरों में जाकर कई गांव बस गए। नई पीढ़ी को शहरी चकाचौंध से लगाव है। लोग सुविधाभोगी होते जा रहे। रोजगार नहीं मिलना भी बड़ा कारण है। बिहार को ही लीजिए। मिथिलांचल में दर्जनों कारखाने थे जो 90 के दशक में बंद हो गए। पण्डौल की स्पिनिंग मिल, लोहट की चीनी मिल, रैयाम और सकरी की चीनी मिल, हायाघाट के पास अशोक पेपर मिल जैसी औद्योगिक इकाइयां सरकार की उदासीनता की भेंट चढ़ गई। समूचा बिहार बर्बाद हो गया। अगर सरकार रोजगार की सुविधा पर ध्यान दे तो लोग गांवों में बसना शुरू कर देंगे। पहल तो सरकार को ही करनी पड़ेगी।’