





गोपाल झा.
राजनीति जब अपने मूल से भटकने लगे और सिद्धांत जब सत्ता की सीढ़ियों पर लोटने लगें, तब दृश्य बड़ा विकृत और समय बड़ा विचित्र हो जाता है। 25 जून को हनुमानगढ़ जिला मुख्यालय पर कलक्टर कार्यालय के सामने जो कुछ हुआ, वह किसी आम राजनीतिक असहमति की परछाईं नहीं थी, वह एक संगठित, मुखर और सोच-समझकर रची गई प्रतिक्रिया थी, निर्दलीय विधायक गणेशराज बंसल के खिलाफ। और उस विरोध की कमान थामे थे वे संगठन, जो वर्षों से भारतीय जनता पार्टी की विचारधारा के संवाहक रहे हैं, विश्व हिंदू परिषद और बजरंग दल।
यह विरोध, केवल व्यक्ति का विरोध नहीं था; यह उस विचारधारा का विरोध था जो स्वयं को अब सत्तामूलक लाभ में विलीन करने लगी है। यह उस व्यवस्था के विरुद्ध खड़ा एक नैतिक प्रश्न था, जो आज अपनी ही नींव खोदने में लगी है।
गणेशराज बंसल। निर्दलीय विधायक, लेकिन भाजपा समर्थक। यह दीगर बात है, यह समर्थन एकतरफा नहीं, परस्पर रहा है। मुख्यमंत्री भजनलाल शर्मा की निकटता, रामलला दर्शन के विशेष विमान में स्थान, भाजपा विधायकों के प्रशिक्षण शिविरों में उपस्थिति, यह सब बंसल की सत्ता से निकटता का दस्तावेज है।

सवाल यह नहीं है कि वे क्यों जाते हैं, सवाल यह है कि उन्हें क्यों बुलाया जाता है? और इसका उत्तर सीधा है, सत्ता की राजनीति में विधायकी सबसे बड़ा सत्य है। पार्टी का टिकट न मिलने के बावजूद विधायक बन जाना ही पर्याप्त योग्यता है, बाकी सब मूल्य, विचार, संगठन और संघर्ष, पीछे छूट जाते हैं। हनुमानगढ़ की सियासत में गणेशराज बंसल और भाजपा प्रत्याशी रहे अमित चौधरी, उस दोधारी तलवार जैसे हैं जो एक ही म्यान में रहकर पार्टी की आत्मा को घायल कर रहे हैं। एक ने पार्टी को हराकर सत्ता पाई और दूसरा पार्टी के भीतर रहकर संघर्ष की राह चला। और अब, सत्ता जिसके पास है, वही ’अपना’ हो गया है।
लेकिन यह अपनत्व स्थानीय कार्यकर्ताओं को अखरता है। वे पूछते हैं, ‘हम जो बरसों से पार्टी के लिए पसीना बहाते आए, क्या हमारा समर्पण गणना के योग्य नहीं?’ यही प्रश्न अब एक चुपचाप क्रांति में बदल रहा है।
विहिप जिलाध्यक्ष डॉ. निशांत बतरा को कथित धमकी इस पूरे घटनाक्रम का वह बिंदु बन गई, जहाँ से विरोध की चिंगारी ने आग का रूप ले लिया। संघ परिवार की इकाइयाँ अब सीधे मैदान में हैं, और यह इत्तेफाक नहीं, योजना का संकेत है। अमित चौधरी समर्थकों ने आलाकमान तक मैसेज पहुंचाया है कि सत्ता की गोदी में बैठा एक निर्दलीय विधायक अब विचारधारा के विरुद्ध खड़ा दिखने लगा है। जाहिर है, उन्होंने सियासी गेंद अब संघ के पाले में डाल दिया है।

बीजेपी के पूर्व जिलाध्यक्ष बलवीर बिश्नोई का भाषण केवल भाषण नहीं था, वह उस असंतोष का घोषणापत्र था जो अब तक अंदर ही अंदर उबल रहा था। जब वे कहते हैं कि ‘गणेशराज को तवज्जो देने वाले मंत्रियों को काले झंडे दिखाए जाएंगे,’ तो यह न केवल सत्ता का विरोध है, यह उस नेतृत्व को सीधी चुनौती है जो अब तक सब कुछ ‘मैनेज’ मानता रहा है। बलवीर बिश्नोई की आवाज को डॉ. रामप्रताप की प्रतिध्वनि माना जाता है, यानि यह कोई सामान्य कार्यकर्ता की प्रतिक्रिया नहीं, बल्कि परंपरा से पोषित नेतृत्व की पुकार है।
अब सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि भाजपा नेतृत्व क्या करेगा? क्या वह इस आग को बुझाने की चेष्टा करेगा या आँच से आँखें मूँद लेगा? क्या अमित चौधरी और गणेशराज बंसल में से किसी एक का चयन किया जाएगा? और यदि हां, तो वह चयन सत्ता की कसौटी पर होगा या सिद्धांत की?
दुर्भाग्य यह है कि राजस्थान भाजपा का नेतृत्व इस वक्त दिशाहीन, निर्णयविहीन और विलंबगामी प्रतीत होता है। जिस वक़्त राजनीतिक कौशल, संगठनात्मक नियंत्रण और वैचारिक अनुशासन की सबसे अधिक ज़रूरत है, ठीक उसी वक़्त नेतृत्व मौन है।

यह विरोध केवल राजनीतिक असहमति नहीं है, यह भाजपा के भीतर विचारधारा बनाम वोटधारा की गहरी लड़ाई है। अगर पार्टी उस नेता को गले लगाती है जिसने उसे हराया, तो यह सिद्धांतों की बलि है। और अगर पार्टी समर्पित कार्यकर्ताओं की पीड़ा की अनदेखी करती है, तो यह उसके आंतरिक लोकतंत्र की हत्या है।
क्या यह विरोध प्रदर्शन हनुमानगढ़ भाजपा का नया अध्याय बनेगा? शायद हां। लेकिन वह अध्याय गुलाबों से नहीं, काँटों से भरा होगा। एक पक्ष सत्ता के समर्थन में है, दूसरा विचार की कसौटी पर। और यदि यह अंतर्विरोध समय रहते नहीं सुलझा, तो पार्टी दो फाड़ हो सकती है। क्योंकि बीजेपी के कई स्थानीय नेता व कार्यकर्ता टीम गणेशराज का हिस्सा बन चुके हैं। ऐसे में हनुमानगढ़ की सियासत अब केवल स्थानीय संघर्ष नहीं, यह एक राष्ट्रीय दल के मूल्य-संकट की झलक बन गई है।
सवाल यह है कि क्या भाजपा नेतृत्व में इतना नैतिक साहस है कि वह स्पष्ट निर्णय ले सके? क्या पार्टी में अब भी वह विवेक शेष है, जो सेवा और सत्ता के बीच का फर्क जानता हो? क्या ’अपना’ वही होगा जो जीते, भले किसी की भी पीठ पर चढ़कर? अनौपचारिक जवाब है, यह न्यू इंडिया है और न्यू बीजेपी। जिसकी परिभाषा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने गढ़ी है। ‘सत्ता के लिए कुछ भी करेगा।’ केंद्र सरकार में खूब सारे ऐसे मंत्री हैं जो कभी बीजेपी, आरएसएस और खुद नरेंद्र मोदी को निशाने पर रखते थे। बावजूद इसके आधुनिक बीजेपी ने सबको अपना लिया। फिर भी इन सवालों का माकूल उत्तर भविष्य देगा, लेकिन हनुमानगढ़ आज यही कह रहा है, ‘राजनीति की राहें अब सत्ता के काफिले से नहीं, सिद्धांत के संघर्ष से तय होंगी।’ पर सवाल यह है, कौन तय करेगा यह राह? और कब? हनुमानगढ़ पूछ रहा है, भाजपा सुन रही है?
-लेखक भटनेर पोस्ट मीडिया ग्रुप के चीफ एडिटर हैं



