गायब हो रहे हैं ‘मायड़ भाषा’ के शब्द!

एडवोकेट शंकर सोनी.
एक दिन मैंने पोती से कहा-‘बेटा छन्नी देना।’ बच्ची मेरी तरफ देखने लगी। उसके लिए नया शब्द था। सहसा लगा कि वह समझ नहीं पाई। उसे समझाया कि गांव में छोटी वाली प्लेट को छन्नी कहते हैं। इस तरह उसके शब्द कोष में एक नया शब्द जुड़ा। सचमुच, अनायास ही गांव की 65 वर्ष पुरानी बातें याद आने लगी। अचानक जेहन में मायड़ भाषा के खूब सारे शब्द घूमने लगे जो आज प्रचलन में नहीं हैं।
सच तो यह भी है कि गांव की मूल संस्कृति लुप्त होती जा रही है और मायड़ भाषा के मूल शब्द भी। ग्रामीण जीवन में हम लोग हमारी मायड़ भाषा ही बोलते थे। बात कर रहे है हम 1960 के दशक की। हिंदी केवल स्कूल की कॉपियों की भाषा थी। कहावत है ‘सौ कोस बाद भाषा बदल जाती है’।
मैं अपने गांव रावतसर के संदर्भ में लिख रहा हूं। जिन शब्दों का हम गांव में रोज उपयोग करते थे, वे शब्द अब बेगाने से हो गए हैं। हम गांवों के वृद्ध और अधेड़ लोग अभी मायड़ भाषा में बातचीत करते हैं, जिसे बच्चे नहीं समझते। कई बार बच्चों के साथ ठेठ देसी भाषा में बात करतें हैं तो बच्चे मुंह की तरफ देखते हैं, फिर उन्हे बताना पड़ता है।
‘राखूंड़ा’ यानी बर्तन साफ करने की जगह। इसकी जगह अब ‘सिंक’ ने ले ली क्योंकि राख या मिट्टी से बर्तन साफ करने का रिवाज़ ही नहीं रहा।
‘अकुरडी’ यानी गांव का कचरा इकठ्ठा करने की खुली जगह। आजकल मिनी ‘अकुरडियां’ है, जो हर मोहल्ले के सूने प्लाट में दिखाई देती है। ‘पेंढा’ यानी घर में पीने के घड़े रखने की जगह। ‘टोकणी’ यानी पीतल या स्टील का बर्तन जो घड़े की तरह उपयोग में लिया जाता था। ‘मंगलिया’ यानी छोटा घड़ा। कई बार खीझ कर बर्तनों को ‘ठीकर’ भी कहते थे। ‘थाप’ या ‘घोल’ यानी जोरदार थप्पड़ अक्सर कहते थे ‘घोल मार गै मुंह घुमा दूंगा’ हालांकि ऐसा होते कभी नहीं देखा।
‘धौलै-दोपारै’ यानी दोपहर, ‘झांझरका’ यानी भोर। ‘तणी’ यानी अलगनी, ‘दड़ी’ यानी गेंद, ‘धूड़’ यानी बालू रेत। ‘बाटकी’ यानी कटोरी, ‘ओरिया’ यानी कमरे में छोटा स्टोर। ‘बाखल’ यानी घर के आगे का आंगन। ‘गुवाड़’ यानी गांव के बीच में सार्वजनिक खुल्ला स्थान। ‘लाव’ यानी कुएं से पानी निकालने हेतु रस्सी। गोबर को पोठा कहते हैं और ‘थेपड़ी’ यानी गोबर के उपले। ‘छाना’ यानी टूटे हुए उपले के टुकड़े। हारा मिट्टी से बना तंदूर की तरह गोल चूल्हा जिसमे गोबर के उपले जलाते थे। ‘कढावनी’ यानी मिट्टी का बर्तन जिसमें दूध गर्म करते थे। ‘ढोलिया’ यानी निवार का पलंग, ‘खटोळी’ यानी छोटी चारपाई। ‘कुवाड़भेळना’ यानी दरवाजा बंद करना। ‘घटूळिया’ यानी छोटी चक्की, ‘माळिया’ यानी चौबारा। झींट खीझ कर बालों को अपमानजनक शब्द के रूप में ‘झींट’ कहते थे। ‘लोटिया’-डंडा यानी बल्ब और ट्यूब लाइट, ‘ळोगड़’ यानी पुरानी उपयोग की गई रूई। ‘टूंटिया’ या टुंटाटूंटी यानी बारात जाने के बाद घर में महिलाओं का नाचगान। ‘टिंगर’ यानी युवा। ‘भांड’ यानी बहरूपिया। लोगों ने अंग्रेजी के शब्दों को उपयोग में लेना शुरू कर दिया है।
अभी गांव के स्कूलों में जानेवाले बच्चे भी शायद अब इन शब्दों को नहीं समझते।
कभी कोई 60 पार का गांव का कोई साथी मिलता है और मायड़ भाषा में बात करते है तो अपनत्व महसूस होता है। ग्रामीण इलाकों के परिवारों में छोटे बच्चों के सामने यह बहुत बड़ी समस्या है। क्योंकि घर में अब लोग ठेठ मारवाड़ी बोलते हैं और स्कूल में बच्चों को हिंदी और अंग्रेजी के शब्द सिखाए जाते हैं। इससे बच्चों के दिमाग पर भार बढ़ता है। यह स्थिति तब है जब आरटीई यानी राइट टू एजुकेशन व नई शिक्षा नीति में प्राथमिक शिक्षा स्थानीय भाषा में देने का प्रावधान है।
-लेखक नागरिक सुरक्षा मंच के संस्थापक अध्यक्ष हैं

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