विकास की असली पहचान तब होती है जब समाज के सबसे अंतिम व्यक्ति तक उसकी रोशनी पहुंचे। लेकिन क्या वास्तव में भारत के गांवों तक यह रोशनी पूरी तरह पहुंच पाई है? डॉ. प्रियंका चाहर द्वारा हनुमानगढ़ जिले में 2010 से 2020 तक की आर्थिक जनकल्याणकारी योजनाओं के क्रियान्वयन पर किए गए गहन शोध से यही सवाल उठता है। उनका शोध न केवल सरकारी योजनाओं की वास्तविकता को उजागर करता है, बल्कि यह भी दर्शाता है कि पंचायती राज और जनकल्याणकारी योजनाओं के बावजूद ग्रामीण विकास की तस्वीर कितनी धुंधली है। हनुमानगढ़ जिले की भौगोलिक परिस्थितियां, विषम सामाजिक-आर्थिक परिवेश और प्राकृतिक आपदाएं इस क्षेत्र को हमेशा चुनौतियों में घेरती रही हैं। योजनाओं का उद्देश्य गांवों की दशा और दिशा को बदलना था, लेकिन अफसरशाही, भ्रष्टाचार और लापरवाही ने इन योजनाओं की जड़ों को कमजोर कर दिया। डॉ. प्रियंका चाहर ने अपने शोध में यह समझने का प्रयास किया है कि कैसे त्रिस्तरीय पंचायती व्यवस्था के तहत योजनाएं कागजों पर तो चमकती हैं, लेकिन ज़मीनी हकीकत में इनका असर दिखाई नहीं देता। उन्होंने इस शोध में यह विश्लेषण किया है कि जब तक जन प्रतिनिधि, सरकारी तंत्र और आमजन के बीच ईमानदार समन्वय स्थापित नहीं होगा, तब तक गांवों का वास्तविक विकास संभव नहीं है। यह आलेख शोध पत्र पर आधारित है, जो हनुमानगढ़ जिले के गांवों में विकास योजनाओं की सच्चाई को उजागर करता है और सरकार की घोषणाओं व जमीनी हकीकत के बीच के अंतर को स्पष्ट रूप से सामने लाता है।





डॉ. प्रियंका चाहर.
‘भारत की आत्मा गांवों में बसती है।’ महात्मा गांधी के इस कथन को हमने कितनी बार सुना है, लेकिन सवाल यह है कि क्या आज़ादी के 78 साल बाद भी हमारे गांव उसी आत्मा की तरह जीवंत और सशक्त हो पाए हैं? विशेषकर हनुमानगढ़ जिले की बात करें, तो यहां का परिदृश्य एक ऐसी कहानी बयां करता है, जहां विकास की योजनाएं कागजों पर चमकती हैं, लेकिन ज़मीन पर उनका असर धुंधला सा नज़र आता है। 1959 में जब पंचायती राज की शुरुआत हुई थी, तब यह उम्मीद की गई थी कि गांवों को लोकतंत्र का हिस्सा बनाकर विकास की मुख्यधारा में लाया जाएगा। त्रिस्तरीय पंचायती व्यवस्था का मूल उद्देश्य था कि गांवों की आवाज़ सीधे सरकार तक पहुंचे और विकास योजनाएं ज़मीन पर उतरें। लेकिन क्या यह उद्देश्य पूरी तरह पूरा हो पाया?
जन कल्याणकारी योजनाओं की हकीकत
सरकारें विकास के वादों और घोषणाओं से पन्ने रंगती रहीं। मनरेगा, प्रधानमंत्री आवास योजना, सांसद आदर्श ग्राम योजना, मुख्यमंत्री आदर्श ग्राम पंचायत योजना, विधायक क्षेत्र विकास कार्यक्रम, इन सबका मकसद गांवों की तस्वीर बदलना था। लेकिन हनुमानगढ़ जिले की सच्चाई कुछ और बयां करती है। 67.06 फीसद साक्षरता दर वाले इस जिले में आज भी कई गांवों में शिक्षा की रोशनी पूरी तरह नहीं पहुंची है। मनरेगा जैसी योजनाएं कुछ राहत तो देती हैं, लेकिन उनका क्रियान्वयन अकसर भ्रष्टाचार और लापरवाही की भेंट चढ़ जाता है। ग्रामीण विकास की योजनाओं की फाइलें आगे बढ़ती हैं, परंतु उन फाइलों में दर्ज आंकड़े ही विकास की सच्चाई को उजागर नहीं करते।
अफसरशाही और गरीबों की बेबसी
हनुमानगढ़ की भौगोलिक परिस्थितियां और विषम सामाजिक-आर्थिक परिवेश ने हमेशा इस जिले को चुनौतियों से घेरा है। लेकिन इससे भी बड़ा संकट है, अफसरशाही का मजबूत शिकंजा और ईमानदारी का अभाव। योजनाएं बनती हैं, बजट पास होते हैं, लेकिन इनका सही उपयोग नहीं हो पाता। ग्रामीण विकास की अवधारणा केवल बैठकों और रिपोर्टों तक सीमित रह जाती है।
गांवों की सच्चाई: कागज़ से धरातल तक
आज भी कई गांवों में आधारभूत सुविधाएं जैसे, पेयजल, स्वच्छता, स्वास्थ्य सेवाएं और सड़कें नदारद हैं। शिक्षा और रोजगार के अवसरों की कमी ने गांवों को पिछड़ेपन के दलदल में फंसा रखा है। विकास के तमाम वादों के बावजूद गरीब और गरीब होता जा रहा है, जबकि प्रभावशाली लोग योजनाओं का फायदा उठाकर और ताकतवर बनते जा रहे हैं।
समन्वय और ईमानदारी की जरूरत
यदि गांवों का वास्तविक विकास करना है, तो जन प्रतिनिधियों, सरकारी कर्मचारियों और आमजन के बीच ईमानदार समन्वय स्थापित करना होगा। जब तक योजनाएं सिर्फ कागजों पर ही बनती और लागू होती रहेंगी, तब तक ग्रामीण विकास का सपना सिर्फ एक कल्पना ही रहेगा।
हनुमानगढ़ जैसे जिलों में यदि वास्तविक बदलाव लाना है, तो ईमानदार प्रशासन, जागरूक ग्रामीण और जवाबदेह जन प्रतिनिधि ही इसकी कुंजी हो सकते हैं। जब तक विकास योजनाओं की रोशनी गांवों तक सही तरीके से नहीं पहुंचेगी, तब तक ‘भारत गांवों में बसता है’ वाला सपना अधूरा ही रहेगा।


