क्या हम कुछ खो रहे हैं?

डॉ. एमपी शर्मा.
क्या हम कुछ खो रहे हैं? यह प्रश्न केवल एक वाक्य नहीं, बल्कि हमारे समय की सबसे गूंजती हुई पुकार है। तकनीक और तरक्की की दौड़ में भागता आज का मानव, जब रुककर पीछे देखता है, तो उसे अपने ही पीछे छूटे रिश्ते, परंपराएं और जीवन की वो आत्मीयता दिखाई देती है, जो कभी भारतीय समाज की आत्मा हुआ करती थी। विशेष रूप से, संयुक्त परिवारकृवह संस्था जो केवल रहने की व्यवस्था नहीं, बल्कि सामाजिक, भावनात्मक और नैतिक शिक्षा का जीवंत केंद्र हुआ करती थी। पर आज, जब हर ओर व्यक्तिगत स्वतंत्रता, प्रोफेशनल प्राथमिकताएं और भौगोलिक दूरियाँ बढ़ रही हैं, तब यह सवाल और भी ज़्यादा अहम हो जाता है कि क्या इस विकास की कीमत हमने अपने परिवारों की एकता और आत्मीयता से चुकाई है? इस लेख में हम जानेंगे कि क्यों और कैसे संयुक्त परिवार बिखर रहे हैं, इसके क्या सामाजिक व मानसिक परिणाम हो रहे हैं, और इनकी पुनर्स्थापना के लिए हमारे पास क्या विकल्प व समाधान हो सकते हैं।
भारतीय समाज की पहचान यदि किसी एक संस्था से होती है, तो वह है, संयुक्त परिवार। दादा-दादी की छांव, चाचा-चाची का प्यार, भाई-बहनों की शरारतें और मां-पिता की ममता से भरा वह घर, जो केवल चार दीवारों का ढांचा नहीं, बल्कि भावनाओं और रिश्तों की जीवंत पाठशाला होता था। लेकिन आज यह दृश्य तेजी से बदल रहा है। कहीं करियर की दौड़ है, कहीं स्वतंत्रता की चाह। नतीजा, संयुक्त परिवार टूट रहे हैं और समाज एकाकीपन की ओर बढ़ रहा है।
संयुक्त परिवार केवल एक सामाजिक ढांचा नहीं, बल्कि जीवन जीने की कला है। इसमें, हर पीढ़ी का अनुभव और ऊर्जा साथ होती है, बुजुर्गों को आदर व देखभाल मिलती है, बच्चों को नैतिकता और संस्कृति का व्यावहारिक पाठ मिलता है, और संकट के समय पूरा परिवार ढाल बनकर खड़ा होता है। साझा रसोई, साझा समस्याएँ, साझा समाधान, यही तो थे संयुक्त जीवन के असली रंग!


क्यों बिखर रहे हैं संयुक्त परिवार?
शिक्षा और नौकरी की तलाश में युवा शहरों में जा बसे हैं। आज का युवा स्वतंत्र निर्णय लेना चाहता है, बिना हस्तक्षेप के। अब परिवार पर आर्थिक निर्भरता नहीं रही, जिससे अलग रहना आसान हो गया है। अलग-अलग क्षेत्रों में कार्यरत लोग एक स्थान पर टिक नहीं पाते। रिश्तों से ज़्यादा अधिकारों की लड़ाई प्रमुख हो गई है।
परिणाम क्या हैं?
इन बिखरते परिवारों का असर केवल सामाजिक ही नहीं, बल्कि मानसिक और भावनात्मक भी है। बुजुर्ग अकेलेपन से जूझ रहे हैं। बच्चों को घर के भीतर से सीखने को बहुत कुछ नहीं मिलता। तनाव, अवसाद और पारिवारिक असुरक्षा बढ़ रही है। और जीवन में वो सामूहिक खुशियाँ जैसे खो गई हैं।
क्या समाधान है?
संयुक्त परिवारों को बचाया जा सकता है, यदि हम चाहें। समझ और सहनशीलता को पुनर्जीवित करें। आपसी संवाद को खुला और ईमानदार बनाएं। हर सदस्य की निजता और सीमाओं का सम्मान करें। नई जीवनशैली के साथ पुराने मूल्यों को संतुलित करें। तकनीक का इस्तेमाल भावनात्मक जुड़ाव के लिए करें, वर्चुअल परिवार भी अब एक सशक्त विकल्प है।
संयुक्त परिवार का आधुनिक स्वरूप
समय के साथ बदलाव ज़रूरी हैं। इसलिए अब संयुक्त परिवारों के नए रूप सामने आ रहे हैं, एक ही अपार्टमेंट या कॉलोनी में अलग-अलग घर, पर हर दिन का मेल-जोल। परिवार के सभी सदस्य अपने-अपने पेशे में हों, लेकिन सप्ताहांत पर मिलकर साथ बैठना। फैमिली ग्रुप्स, वीडियो कॉल, साझा आयोजन।
संयुक्त परिवार एक भावना है, जो केवल साथ रहने से नहीं, एक-दूसरे के साथ रहने की इच्छा से जीवित रहती है। यदि हम थोड़ी सी समझदारी और संवेदनशीलता दिखाएं, तो आधुनिक जीवन में भी हम अपने परिवारों को एक सूत्र में बाँध सकते हैं। रिश्तों को निभाने के लिए समय नहीं, मन चाहिए। संयुक्त परिवार सिर्फ एक परंपरा नहीं, हमारी संस्कृति की आत्मा है, इसे बचाना हमारा दायित्व भी है और जरूरत भी।
-लेखक पेशे से सीनियर सर्जन और इंडियन मेडिकल एसोसिएशन राजस्थान के प्रदेशाध्यक्ष हैं

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