




ओम पारीक.
आज अचानक कुछ पुरानी बातें याद आ गईं। वो घर के औज़ार, जिनके प्रयोग में सिर्फ कामकाज नहीं, हमारी सेहत के राज भी छुपे थे। आज भले ही हमने अपने घरों में तमाम इलेक्ट्रॉनिक उपकरण जुटा लिए हैं, लेकिन जो मेहनत और आनंद हमें उन पुराने घरेलू संसाधनों में मिलता था, वो जैसे कहीं खो गया है।
चलो, आज याद करते हैं उन चीज़ों को। चक्की, कुंडी-घोटा, मूसल, सिल-बट्टा, कभी हर रसोई की शान थे ये। गांवों में तो अब भी कहीं-कहीं नजर आ जाते हैं, लेकिन शहरों ने तो इन्हें या तो घर से बाहर कर दिया या मकानों की नींव में कहीं गाड़ दिया।
1980 के दशक में बदलाव की हवा बहने लगी थी। उस दौर में घर की बूढ़ी दादी-नानी की मेहनती दिनचर्या धीरे-धीरे थमने लगी। घर की अपनी चक्की धीरे-धीरे बंद हो गई। दाल-दलिया भी अब बाहर की मिल से पिसवाने लगे। मूसल और उन्खली की वो गूंज जो कभी पूरे मोहल्ले में सुनाई देती थी, अब मिक्सी की भनभन में दब गई। चूल्हा-चौका गैस के हवाले हो गया और बाकी काम जूसर, मिक्सर, ग्राइंडर ने संभाल लिए। घरों में सुविधा तो आ गई, लेकिन उस मेहनत का स्वाद कहीं खो गया।
कभी घरों में पानी मटकों में भरकर रखा जाता था। हर दो घंटे बाद कोई न कोई बाल्टी लेकर बाहर से पानी भर लाता। अब तो पानी बोतल में बंद फ्रिज में पड़ा रहता है, और मटका, बस शोपीस बन कर रह गया है।

आजकल भोजन पकाने और परोसने का तरीका भी पूरी तरह बदल गया है। न अब ज़मीन पर बैठकर खाना खाने की परंपरा रही, न मिट्टी के कुल्हड़ या हांडी में बने खाने का स्वाद। फ्रिज, माइक्रोवेव और पैक्ड फूड ने सारी परंपराओं को आधुनिकता की चादर में ढक दिया।
कभी घर की महिलाएं गेहूं पीसती थीं, छानती थीं, आटा गूंधकर खुद सेवइयां बनाती थीं। वो सेवइयां इतनी पौष्टिक होती थीं कि टूटी हड्डियों को जोड़ देतीं। फिर वो सेवइयां खीर बनकर आतीं या सादी घी-शक्कर में मिलकर दिल को तृप्त कर देतीं। अब सेवइयों की जगह चाउमिन ने ले ली है, जो स्वाद और ताकत दोनों में फीकी पड़ती है।
मूसल की आवाज़ जब घर में गूंजती थी, तो पता चल जाता, आज खिचड़ा या लापसी ज़रूर बनेगी। चक्की चलती थी तो मोगर की सब्जी और बड़ी-पापड़ बनने तय थे। कुंडी-घोटा खड़कता तो बच्चे दौड़ जाते थे पूछने, ‘मां, आज क्या मिर्च-प्याज की चटनी मिलेगी?’

उस समय के मसाले भी खास होते थे। हल्दी, धनिया, मिर्च, सब साबुत आते थे, मां उन्हें धो-सुखाकर मूसल से कूटती थीं। फिर उन मसालों को बड़े जतन से संग्रह किया जाता। अब तो हर मसाला ब्रांडेड पैकेट में आता है, बिना मेहनत, बिना आत्मा के स्वाद के।
आज घरों में आटा भी थैलों में आता है, दाल भी पैकेट में, और सब्ज़ी भी कट-कटाई। जो घर कभी छोटे-छोटे उत्पादन केन्द्र होते थे, आज सिर्फ उपभोक्ता बनकर रह गए हैं। बचपन में एक कहावत सुनी थी, ‘गुड़ होता तो गुलगुला बनाता।’ अब तो हालत यह है कि ‘आटा भी नहीं है, और सोचते हैं गुलगुला बनाएं।’
व्यस्तता के इस दौर में श्रद्धा भी कहीं गुम हो गई है। दिनभर की दौड़भाग में अब ज़िंदगी बस यही रह गई है, झाड़ू, पोछा, बर्तन, खाना और सोना। उस पुराने दौर की मेहनत, उस मेहनत में छुपी सेहत, और उन औज़ारों से जुड़ी खुशियां अब केवल यादें बन गई हैं। शायद अगली पीढ़ी इन्हें अजायबघर में जाकर ही देख पाएगी, चक्की, मूसल, सिलबट्टा और मिट्टी के बर्तन और तब वो सोचेंगे, क्या सचमुच कभी ऐसा भी जीवन था?
-लेखक ग्रामीण परिवेश को जीने वाले वरिष्ठ पत्रकार हैं




