सेठ, चौधरी और करणी माता!

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ओम पारीक.
मां करणी के दरबार में हाजिर हूं। हर बार जब भी मौका मिलता है, जोधा बॉस में स्थित मां करणी के मंदिर में दस मिनट चुपचाप बैठ जाता हूं। न कोई मांग, न कोई मंत्र, बस मौन साधना। वह मौन जैसे भीतर की सारी हलचल को थाम लेता है, मन की हड़बड़ाहट को चुप करा देता है। जैसे कोई ऊर्जा भीतर उतर आती हो, जैसे कोई अदृश्य शक्ति कंधे पर हाथ रख कर कहती हो, ठीक हो सब, चलो आगे बढ़ो।
दरअसल, हम भारतीयों की संस्कृति की सबसे सुंदर बात यही है कि हमारी आस्था ‘सजावटी’ नहीं, ‘संवेदनशील’ है। हम गांव के भोमिया जी से लेकर हिमालय के कैलाश तक, हर स्थान को आस्था से जोड़ते हैं। नदियां, जंगल, पहाड़, मरुभूमि, हर जगह अपने ईष्ट को स्थापित करते हैं। जैसे मन के किसी कोने को थाम लेते हैं, बाँध देते हैं ताकि वह भटकने ना पाए।
मैं जब सुबह की पूजा करता हूं, या शाम की संध्या आरती में दीया जलाता हूं, तो यह कोई कर्मकांड नहीं, यह मेरी मन की सफाई है। दिनभर जो विचलन, द्वंद्व, थकान, गुस्सा, असंतोष मन में इकट्ठा होता है, वह सब इस साधना की अग्नि में जलकर राख हो जाता है। और यही मेरी भक्ति है। यही दर्शन है।
एक साधारण चौधरी की असाधारण भक्ति
एक बार गांव में एक चौधरी साहब से बात हुई। मैंने पूछा, ‘आप न मंदिर जाते हैं, न माला फेरते हैं, फिर भी आपमें बड़ी आस्था दिखती है। क्या करते हैं आप?’ वे मुस्कुराते हुए बोले-‘ओम, बचपन में मां-बाप का साया नहीं रहा। जीवन संघर्ष में बीता। एक बार एक साधु मिले, उन्होंने कहा-तू जाट का बेटा है, सुबह उठकर तीन बार धरती को प्रणाम करना और ऊपर हाथ जोड़कर कहना, हे भगवान, मुझे सद्बुद्धि देना। यही तेरी पूजा है। मैंने उसे जीवन का हिस्सा बना लिया। और क्या कहूं, जो मिला जीवन में, किसी को शायद ही मिला हो।’ मैं सन्न रह गया। यही तो है ‘गृहस्थ की भक्ति’। ना दिखावा, ना तमाशा। बस सरल श्रद्धा और सच्चा समर्पण।


सेठ और वह पेड़
और फिर एक और बात याद आती है। हमारे मोहल्ले में एक सेठ जी रहते थे। रोज सुबह जब दुकान के लिए निकलते, तो घर के सामने एक पेड़ के नीचे दो मिनट खड़े रहते। लौटते समय भी दुकान से पहले वहीं दो मिनट बिताते। एक दिन पड़ोसी ने पूछ लिया, ‘सेठ जी, रोज ये पेड़ के नीचे क्या करते हैं?’ सेठ जी हँसकर बोले-‘कुछ खास नहीं। जब सुबह घर से निकलता हूं तो घर की परेशानियां इस पेड़ पर टांग देता हूं, और दिन भर दुकान की समस्या लेकर निकलता हूं। शाम को लौटते समय दुकान की समस्याएं फिर पेड़ को सौंप देता हूं और घर की चिंताओं के साथ भीतर जाता हूं। दो समस्याओं को साथ क्यों उठाऊं? एक वक्त में एक ही काफी है।’ क्या गजब दर्शन था उस सहज व्यवहार में! पेड़ कोई देवता नहीं था, पर उसका आभास देवतुल्य था। वह प्रतीक था, अतिरेक से मुक्ति का, मानसिक संतुलन का, जीवन से जुड़ने की कला का।


मेरे गांव की मां
मेरे गांव की माताएं आज भी सुबह उठकर घर के बाहर चिड़ियों के लिए दाना डालती हैं, कीड़ों के लिए पानी रखती हैं, पेड़ पर लोटे से जल चढ़ाती हैं। पहली रोटी गाय के लिए, दूसरी कुत्ते के लिए निकालती हैं, फिर घर का भोजन बनता है। सदियों से यह परंपरा न सीखनी पड़ी, न सिखाई गई, यह जीवन का हिस्सा थी। पहले सत्कर्म, फिर दिनचर्या। यह वही संस्कृति है जिसने रेगिस्तान को भी ‘देवभूमि’ बना दिया, जहां जल की बूंद को भी देवता की तरह सहेजा गया। मैं खुद को नास्तिक कभी नहीं मान सकता। क्योंकि हर दिन में एक अच्छा काम करना, मेरे लिए पूजा का ही रूप है। इंसान होने के नाते, सोचने-समझने की शक्ति मिली है, तो उसका उपयोग करना भी धर्म है। हमारी धरती पर जितने भी जीव हैं, वह हमसे, हमारी सोच से, हमारी करनी से प्रभावित होते हैं।
आग से खेलना नहीं है, ऊर्जा में बदलना है।
जल को बर्बाद नहीं करना है, जीवन में रूपांतरित करना है।
वायु को जहरीला नहीं बनाना है, आशीर्वाद बनाना है।
अगर हम अपने जल, जंगल, जमीन और जीवों से प्रेम करेंगे, तो यकीन मानिए, पृथ्वी सचमुच देवताओं का वास स्थल बन जाएगी।
अंत में एक छोटी-सी बात, जो बड़ी सीख बन गई, ‘हर इंसान के पास अपनी-अपनी समस्याएं हैं। लेकिन अगर हम उन समस्याओं को पेड़ पर टांगना सीख जाएं, तो जीवन आसान हो जाएगा। और यही भक्ति है, समस्याओं से ऊपर उठकर जीना।’
-लेखक हनुमानगढ़ जिले के सुविख्यात पत्रकार व सरल इंसान हैं

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