

एडवोकेट शंकर सोनी.
गांव का नाम सुनते ही हमारे जैसे मूलतः ग्रामीण लोग जो अब शहरों में रह रह रहे हैं, को अपनी मौलिकता याद आ जाती है। सरलता, शुद्धता, सादगी गांव के स्वरूप का अंतर्निहित प्राकृतिक सौंदर्य भारतीय संस्कृति और विरासत की द्योतक हैं। जो धीरे-धीरे सुविधा और विकास के नाम पर समाप्त होता जा रहा है। मेरी यादाश्त के अनुसार आज से 65 वर्ष पूर्व हमारे गांव रावतसर की स्मृतियां साझा कर रहा हूं।

हनुमानगढ़ जिले का रावतसर तब गांव ही था। ज्यादातर लोग खेती करते थे। खेती के लिए ऊंट और बैल से हल चलाए जाते थे। उस समय गांव में दो ट्रैक्टर, तीन-चार जीपें थी। रिक्शा या टेंपो नहीं थे। गांव में सड़के नहीं होती थी। गांव के मुख्य त्योहार दिवाली, होली, गणगौर, तीज, रक्षा बंधन, नागपंचमी, भैयादूज, मकर सक्रांति, अक्षय तृतीया (आखा तीज) आदि मनाए जाते थे।
गणगौर पर राजघराने की गौर को गढ़ में ही को गहनों से सजाया जाता था फिर शोभा यात्रा के रूप में गौर का बनोरा निकाला जाता था। यात्रा का गंतव्य बेड़ा कुआं होता था। गौर को कुएं में डाल कर आवाज देकर पूछा जाता था ‘सासरा दोरा कै सोरा’ यानी ससुराल में सुखी हो या दुखी। नहाने के बाद महिलाएं और बुजुर्ग मंदिर जाते थे।

महिलाएं गौर पर, नवरात्रि, एकादशी, जन्माष्टमी, तीज, रक्षाबंधन, लगभग हर माह की चतुर्थी व पूर्णिमा पर उपवास रखती ही थीं। कभी-कभी रामदेवजी, केसरोजी भैरव की अर्चना हेतु रात्रि जागरण का आयोजन किया जाता था।
लगभग सभी घरों में गाएं रखी जाती थी। छाछ बेची नहीं जाती थी। मोहल्ले के सभी घरों की गायों को हांकते हुए गांव का चरवाहा अपना भोजन-जल कंधे पर लटकाए चल पड़ता था जो शाम को गोधूली बेला में गायों सहित वापस लौटता था।
मीठे पानी का एक कुआं होता था। पीने का पानी कुएं से लाते थे। कभी-कभी ऊंट या बैल उपलब्ध नहीं होते तो सभी लोग रस्से को खींचते। गांव में एक जोहड़ था जिसके पानी में फिटकड़ी डाल कर पीने के काम में लेते थे। लगभग सभी घरों के बच्चे और युवा कंधों पर मटका रख कर पानी लाते थे। कुछ घरों की महिलाएं पानी लाती थी।

छोटा सा 25-30 दुकानों का बाजार होता था। व्यापार में मिलावटी और बेईमानी बहुत कम थी। धोबी गांव में नहीं होते थे। गांव में दर्जी, लोहार, मोची, सब्जी वाले, पनवाड़ी, कुम्हार व तेली थे जो कुटीर उद्योगों द्वारा जीविकोपार्जन करते हैं जिनकी संख्या तीन तक थी। दर्जी की दुकान नहीं होती थी। दर्जी ज्यादातर घरों जाकर ही सिलाई करते थे।
खेलों में कबड्डी, दौड़, लुकाछिप्पी, गिल्लीडंडा, कंचे, कपड़े के गेंद से मारने के खेल थे। लड़कियां रस्सी कूदने के अलावा ठिकारियों या कंचो से कई तरह के खेल खेलती थी। तब लड़के लड़कियों के साथ नहीं खेलते थे। अगर किसी लड़के को लड़कियों के साथ खेलते हुए देख लेते तो छेड़ने के लिए गीत गाते थे-‘छोरियां सागै छोरो खेलै, बाबोजी जी नै आण दे, आधो नाक कटावण दे।’
मनोरंजन के नाम पर कभी-कभी सांग (बहरूपिया) आता था। गांव में एक स्कूल था जिसमें तीन चार अध्यापक होते थे। स्कूल में प्रातः प्रार्थना के बाद राष्ट्रीय शपथ होती थी। हर शनिवार को बालसभा होती थी जिसमें सभी गीत, चुटकले, कहानी सुनानी आवश्यक होती थी। हस्तलिपि सुधार के लिए लकड़ी की तख्ती पर खड़िया मिट्टी का लेप लगाकर कलम (सांठी) से लेख लिखते थे। स्याही की टिकिया मिलती थी जिसे पानी में घोल कर स्याही बनाते थे।
गांव में बिजली कुछ ही घरों में थी। सभी के पहनावे साधारण होते थे। सामान्य रूप से बनियों के परिवार की महिलाएं साड़ियां पहनती थी। घर से बाहर जाती तो साड़ी पर ओढ़नी भी पहनती थी। शेष जातियों में महिलाएं घाघरा-ओढ़नी पहनती थी। लड़के सफेद या पटेदार कपड़े के पायजामे व कमीज पहनते थे। लड़कियां सलवार जम्फर पहनती थी। बड़े सर पर पगड़ी या साफा रखते थे। नंगे सर रहना अच्छा नहीं समझा जाता था।
माघ माह में रामदेवजी का मेला विशेष आकर्षण का केंद्र होता था जिसका सभी को इंतजार रहता था। मेले में हर वस्तु विक्रय की दुकानें लगती थी। सर्कस, फोटो स्टूडियो मेले में ही होते थे। कभी कभी गांव में दो बांसों पर चलते हुए नट पनामा सिगरेट के मशहूरी हेतु आता था। चिलम और हुक्के से बड़े बुजुर्ग तंबाकू का सेवन करते थे। बच्चों और युवाओं को तंबाकू सेवन दूर रखा जाता था। बीड़ी पीते हुए पकड़े जाने पर पिटाई सुनिश्चित थी। महिलाओं या लड़कियों से छेड़छाड़ नहीं होती थी। सभी को उनके नाम के साथ दादा, दादी,काका काकी, बाई, भुआ से संबोधित किया जाता था। अपराध बहुत ही कम होते थे। झूठी सौगंध नहीं लेते थे। सभी में भोर, मुंह अंधेरे शौच के लिए गांव से दूर जाने की आदत होती थी।
गांव में घर के पीछे की तरफ बिना दरवाजे का पाखाना होता था जिसे अपवाद स्वरूप ही उपयोग में लिया जाता था।
लगभग सभी लोग नीम की दातुन या अंगुलियों से मंजन लगाकर दांत साफ किया करते थे। अधिकतर बिना छत के स्नान घर होते थे। घरों में सुबह-सुबह ही झाड़ू से सफाई की जाती थी। कचरे को एक निश्चित स्थान पर डालते थे कचरे के ढेर को ‘अकूरडी’ कहते थे। गांव में कहावत थी ‘सौ वर्ष बाद अकूरडी का भी भाग्योदय होता है।’ गांव में तब अस्पताल नहीं था। एक वैद्य जी होते थे।
गांव में किसी तरह का प्रदूषण नहीं था। गंदे पानी के तालाब (गिनानी) के पास थोड़ी बदबू होती थी। बुजुर्ग पीपल के बड़े पेड़ के नीचे बने चबूतरे पर बैठे रहते हैं। आम रास्ते से गुजरने वाला कोई भी पुरुष ‘राम-राम’ करना नहीं भूलता था ।
बिल्ली के रास्ता काटने, खाली घड़ा ले जाते मिलने, कुत्तों के रोने, उल्लू की आवाज, छींक आने को ‘अपशकुन’ माना जाता था।
शुभ कार्य हेतु घर से रवानगी के बाद कोई महिला या पुरुष भरे हुए पानी का घड़ा या टोकनी लिए मिलता तो इसे अच्छा शकुन मानते थे और घड़े में सिक्का डालते थे। वाल्मीकि समाज गांव और घरों की सफाई करते थे। गांव में छुआछूत जैसी बुराई भी थी। ग्रामीण पारंपरिक वाद्य, हरमोनियम, बीन, बांसुरी और लोक गीत, संगीत भी लुप्त हो रहे है।
वर्तमान पीढ़ी अपने जीवन स्तर से संतुष्ट नहीं है। हर इंसान का मन विचलित है।
गांव में रहने वालों को शहर की भागदौड़, चकाचौंध अच्छी लगती है तो शहर में रहने वाले लोगों की जिंदगी इतनी भागदौड़ भरी होती है कि उन्हें अपनी जिंदगी में थोड़ी सुकून की तलाश होती है। ऐसे में उन्हें गांव का सुकून स्वर्ग लगता है।
बस इसी विचलित मनःस्थिति की वजह से ही गांव के लोग शहर की ओर तथा शहर के लोग को गांव की ओर जा रहे।
पंचवर्षीय योजनाओं में ग्रामीण विकास के बजट को शहरों में खर्च किया गया जिसके कारण गांवों का शिक्षा,चिकित्सा के क्षेत्र में विकास नहीं हुआ। ग्रामीण लघु कुटीर उद्योग लगभग खत्म हो गए। बढ़ते हुए औद्योगीकरण के कारण गांव के लोग शहरी श्रमिक बनते जा रहे हैं। हमें अपने अपने गांवों को शिक्षित, आधुनिक, स्वावलंबी, आदर्श गांव बनाने के लिए गांवों की ओर लौटना होगा। सचमुच, कितना बेहतर था पहले अपना गांव!
-लेखक नागरिक सुरक्षा मंच के संस्थापक अध्यक्ष हैं