…..वो महिलाएं जो गांवों की आत्मा थीं

ओम पारीक.
बात 1960 से 1965 के दरम्यान की है। वो समय जब गांव की गलियों में शहरों जैसी चहल-पहल नहीं थी, लेकिन जीवन अपने पूरे रंग में था। बाज़ार की जगह गलियां होती थीं, और दुकानों की जगह सिर पर टोकरी या झोली रखे घूमतीं महिलाएं। ये थी गवारिया और जैसलमेरी भाटों की महिलाएं, जिनकी पदचापें गांवों की मिट्टी में रची-बसी थीं। ये महिलाएं चलती फिरती दुकानों के समान थीं। कांच की चूड़ियां, लकड़ी की कंघियां, लोहे की चिमटी, सुइयां, हिंगलू, पाउडर, सिंदूर, लाली, काजल और ना जाने क्या-क्या। सब कुछ उनकी छोटी सी पेटी या झोली में करीने से सजा होता। सिर पर सामान, हाथों में संतुलन और चेहरों पर आत्मविश्वास लिए वे खेतों, ढाणियों, गांवों, और मोहल्लों तक का सफर तय करती थीं। कभी गर्मी की तपिश में पसीना पोंछती, कभी धूल भरी आंधियों में साड़ी संभालती, लेकिन उनका काम चलता रहता।
भाटनी महिलाएं विशेष होती थीं। उनके पास खड़िया मिट्टी, जीवाश्म से बनी चिड़े (जो पुराने समय में बालों के परांदे में लगाई जाती थी), और तरह-तरह की कौड़ियां, छोटी सिप्पियाँ, शंख और दुर्लभ दैहिक सजावट के पुराने सामग्रियाँ होतीं। उनके पास ‘बग्सुई’ कहलाने वाली झोली में तरह-तरह की बालों में लगाने वाली चीज़ें होतीं, जिनका आकर्षण शब्दों में बयान नहीं किया जा सकता।
उन दिनों महिलाओं का यह व्यापार केवल जीविका का साधन नहीं था, यह एक समाज से जुड़ाव, परंपरा का निर्वाह और सांस्कृतिक धरोहर का वाहक भी था। वे मेलों जैसे गोगा मेला, रावतसर का मेला, पल्लू का उत्सव आदि में अपने सामान के साथ पहुंचतीं और महिलाओं की भीड़ में अपने उत्पादों को सजाकर बैठ जातीं। सुखी मेहंदी, खालिस इत्र, खड़िया पाउडर, सब कुछ वहां उपलब्ध होता।


अल्ला रखी लखारा और लाख की चूड़ियां
रावतसर की यादों में एक नाम गूंजता है, अल्ला रखी लखारा। यह महिला लाख की चूड़ियां घर-घर जाकर बेचती थीं। उनके शौहर चूड़ियां बनाते और शादी-ब्याह के मौसम में उनका धंधा चरम पर होता। ऐसी महिलाएं गांव की सामाजिक संरचना की अहम कड़ी थीं। लाख की चूड़ियों का वह सौंदर्य, आज की मशीन से बनी चूड़ियों में कहां?
रंगरेज और ओढ़नी का श्रृंगार
रंगरेज समाज की महिलाएं ओढ़नी, साफा, और चुन्नियों को रंगने और ‘क्लफ’ लगाने का काम करती थीं। एक अलग ही तरह की रंगाई होती थी वो हाथों की कारीगरी, अनुभव का संगम, और रंगों से गहरा रिश्ता। आज के डिजिटल प्रिंट और रेडीमेड ओढ़नियों में उस आत्मा का अभाव है।
दाई, महतरानी और सेवा का भाव
टेक्नोलॉजी से दूर, स्वास्थ्य सेवाओं से वंचित, गांवों में एक नाम था, हाजरी ताई। तेली समाज की यह महिला लगभग हर मोहल्ले में दाई के रूप में जानी जाती। हर प्रसव के समय उसकी उपस्थिति जरूरी मानी जाती। उसके हाथों में ममता, अनुभव और सहजता का संगम था।
तुलसीराम मेहतर की पत्नी, जिन्हें सब ‘महतरानी काकी’ कहकर बुलाते। गांव में प्रसव के समय उनकी भी विशेष भूमिका रहती। बिना जात-पात देखे, बिना कोई शर्त रखे, सेवा भावना का ऐसा स्वरूप अब कम ही देखने को मिलता है। तब का ग्रामीण जीवन सिर्फ जीविकोपार्जन नहीं था, वह सामाजिक सरोकारों से भरा हुआ था। नाई समाज की महिलाएं हों या बढ़ई की बेटियां, सभी का एक काम था, और वह केवल निजी नहीं, सामूहिक जीवन से जुड़ा था। सबका रोजगार किसी न किसी सामाजिक ज़रूरत से जुड़ा हुआ था। यही सहकारिता और समाज-निर्माण का मूल था।
सिंधी-अरोड़ा समाज की दस्तक
देश विभाजन के बाद जब सिंधी और अरोड़ा समाज के लोग पाकिस्तान से भारत आए, तो उन्होंने गांवों में व्यापार की नई लहर शुरू की। रावतसर, पल्लू, नोहर, इन इलाकों के हर गांव में सिंधी व्यापारियों की दुकानें बन गईं। उनकी मेहनत, व्यापारिक दृष्टिकोण और विनम्र व्यवहार ने ग्रामीण बाज़ार के स्वरूप को ही बदल डाला। दशकों तक ये कारोबार फला-फूला, लेकिन जब नहरों का अभ्युदय हुआ और गांवों से लोग शहरों की ओर बढ़ने लगे, तब इन व्यापारियों ने भी शहरों में अपने ठिकाने बना लिए।
और अब…
आज जब चारों ओर ब्रांडेड सामानों की चकाचौंध है, मल्टीनेशनल कंपनियों का बोलबाला है, तब वह पुरानी सरल, स्वाभाविक, आत्मीय दुनिया एक स्मृति बन गई है। जीवन की जटिलताएं बढ़ी हैं, लेकिन आत्मीयता, अपनापन, और सहकारिता जैसे मूल्य कहीं पीछे छूट गए हैं।
हम थोड़े अनपढ़ सही, लेकिन हमारे जीवन में जटिलता नहीं थी। हमने व्यवस्था में समयानुसार प्रयोजन जोड़े, लेकिन अब वह सामाजिक ढांचा जिसमें हर व्यक्ति एक जिम्मेदारी और सार्थकता के साथ जुड़ा था, धीरे-धीरे विलुप्त हो गया। नई दुनिया ने हमें ब्रांडेड सिस्टम की चमक तो दी, लेकिन पुराने व्यवहार, रिश्तों, परंपराओं और जीवन मूल्यों को धुंधला कर दिया। यह केवल स्मृतियों की बात नहीं, यह उस समाज की गाथा है जहां जीवन में सरलता थी, संघर्ष था लेकिन सौंदर्य और सरोकार भी थे।
-लेखक ठेठ ग्रामीण परिवेश के वरिष्ठ पत्रकार हैं

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